Friday, September 30, 2011

भगवत गीता - वसंतेश्वरी – प्रेम योग - स्वरूप अनुभूति के बाद ही भक्ति उत्पन्न होती है. PROF.BASANT


ईश्वर के प्रति प्रेम, परम अनुराग भक्ति है और आजकल भक्ति का बड़ा बोलबाला है. आधुनिक साधु-सन्त, गुरु-चेले सभी चाहे  वह किसी भी  धर्म के मानने वाले हों , किसी न किसी रूप में भक्ति करो भक्ति करो का  प्रचार प्रसार कर  रहे  हैं. पर क्या कोई भक्ति करता है? इनके आचरण से लगता है यह  सब व्यवहारिक हैं, सब मौका परस्त भक्त और गुरु हैं. अभी ईश्वर की चर्चा कर रहे हैं तो अभी लट्ठ चलाने को तैयार हो जाते हैं. रुपयों के लिए गुरु और स्वजन का घात कर  डालते हैं. यह छिछोरे भक्त  हैं. आज प्रेम करते हैं कल एक दूसरे के अनिष्ट की सोचते हैं.
भक्ति अथवा प्रेम किया ही नहीं जा सकता. यह तो स्वयं हो जाता है. यह  लाइलाज रोग के समान है जिसे लग गया सो लग गया.
हमारा प्रेम संसार के प्रति होता है. पुत्र पुत्री का प्रेम, स्त्री पुरुष का प्रेम, माँ बाप का प्रेम, जमीन जायजाद का प्रेम, पद प्रतिष्ठा से प्रेम वह भी लेन देन पर टिका हुआ देखने को मिलता है. इस का कारण है हमारी इन्द्रयाँ बाहर की और खुलती हैं अतः प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित होती हैं. अप्रत्यक्ष ज्ञान के बारे में हम कुछ नहीं जानते, उस और हमारी इन्द्रियों की पहुँच नहीं है. फिर अप्रत्यक्ष से प्रेम केसे हो सकता है. दुनिया के ज्यादातर धर्म गुरु कोई संसार का भोग अपने अनुयायियों को  बताता अथवा देता है तो कोई स्वर्ग का भोग दिखाता है.
तो फिर प्रेम अथवा भक्ति कौन करता है.
श्री भगवान  भगवद्गीता में कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति चार प्रकार लोग करते है.

चतुर्विधा भजन्ते मां
जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी
ज्ञानी च भरतर्षभ ।7-16।

हे अर्जुन चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले, आर्त (दुःखी), अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी मुझ विश्वात्मा को भजते हैं, मुझ से प्रेम करते हैं।

आर्त-अत्याधिक दुःखी जो संसार से पूर्णतया निराश हो गया हो. जैसे द्रोपदी चीर हरण के समय. दुःख हरो नाथ ब्रजनाथ शरण में तेरी

अर्थार्थी- गरीबी और फटे हाल से जो अत्याधिक तंग हो गया हो और जीवन के लिए धन अंतिम विकल्प हो और इसके लिए उसे मात्र ईश्वर का सहारा हो अथवा जिसकी धन वैभव में प्रबल आसक्ति हो और उसके लिए तन मन धन से ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव प्रति क्षण रखता हो. हर समय धन वृद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हो और इच्छा  पूरी होने पर जिसकी श्रृद्धा गहरी होती जाती हो. कुछ योगभ्रस्ट धनी व्यक्तियों में ऐसे लोग होते हैं. ज्यादातर सांसारिक व्यक्तियों में  मात्र तात्कालिक ऐसी भक्ति मिलती है. इसी  तात्कालिक भक्ति का प्रचार प्रसार ही ज्यादातर धर्म गुरु कर रहे हैं.
जिज्ञासु - आत्म जिज्ञासा, ब्रह्म जिज्ञासा स्वरूप के खोज की और ले जाती है. यहाँ वह सत्य की खोज करता है प्रति बोध की मात्रा के अनुसार प्रीति बोध होता है. जितना स्पष्ट प्रति बोध उतना प्रेम उतनी भक्ति.
ज्ञानी बोध को प्राप्त व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है.

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थ
महं स च मम प्रियः ।7-17।

इन चार प्रकार के भक्तों में अनन्य प्रेम से जो मुझ परमात्मा की भक्ति करता है अर्थात सदा आत्मरत हुआ आत्म सुख अनुभव करता है ऐसा ज्ञानी भक्त अति उत्तम है। क्योंकि ज्ञानी मुझे तत्व से जानता है। इसलिए आत्म स्थित मुझे यथार्थ से जानने के कारण सदा मुझसे प्रेम करता है और वह सदा मुझे प्रिय है। वास्तव में हम दोनों एक ही हैं। ज्ञानी मेरा ही साक्षात स्वरूप है।
पूर्ण सत्य जानने के बाद अथवा स्वरूप अनुभूति के बाद ही वास्ताविक प्रेम और भक्ति उत्पन्न होती है.

बहूनां जन्मनामन्ते
ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति
स महात्मा सुदुर्लभः ।7-19।

अनेक जन्मों से अभ्यास, वैराग्य द्वारा यत्न करता हुआ, अनेक बार योग भ्रष्ट होकर जन्म लेकर अन्त के जन्म में परम विशुद्ध ज्ञान को प्राप्त पुरुष समझ जाता है कि सब कुछ आत्मा ही है, सभी कुछ भगवान ही हैं। इस प्रकार सृष्टि के कण कण में व्याप्त वह ज्ञानी स्वयं को स्वयं से देखता हुआ मुझे भजता है, ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
ब्रज गोपियों ,चेतन्य, मीरा, ईसा, बुद्ध का प्रेम इसका उदाहरण है. सूली पर चड़ने के बाद भी प्रेम कम नहीं होता. वह प्रत्येक स्थिति में सदा एकसा बना रहता है. यही वास्तविक प्रेम और भक्ति है.

आदि शंकर ने स्वरूप अनुसन्धान को भक्ति कहा है. यह सदा प्रति बोध के बाद जन्म लेती है  अर्थात ईश्वर जब अनुभव होने लगे और बोध होने पर पुष्ट हो जाती है. जिज्ञासा इसकी पहली सीड़ी  है और ज्ञान पूर्णता है. भगवद गीता के जिज्ञासु एवम ज्ञानी को उन्होंने  भक्त अथवा प्रेमी स्वीकारा है
यह ईश्वरीय प्रेम अति विलक्षण है. यह कृष्ण प्रेम है.
श्री भगवान गोपियों से कहते हैं, जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं वह स्वार्थी हैं, उनका सारा प्रयत्न लेन देन मात्र है. उनमें न सोहार्द है न धर्म. जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं उनका ही प्रेम निश्छल है, सोहार्द व धर्म पूर्ण है.
इस संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रेम करने वाले से भी प्रेम नहीं करते. जो अपने स्वरुप में स्तिथ रहते हैं जिनके लिए दूसरा कोई नहीं है. दूसरे वे हैं जिन्हें द्वैत भासित होता है पर उन्हें किसी से कोई प्रयोजन नहीं. वे आत्म तृप्त होते हैं. तीसरे जानते ही नहीं कि कौन उनसे प्रेम करता है और चौथे वो जो अपना हित करने वालेप्रेम करने वाले से भी द्रोह करते हैं.
परन्तु हे गोपियो मैं तो प्रेम करने वाले से भी प्रेम जैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए. मैं इसलिए ऐसा करता हूँ कि उनकी चित्त वृत्ति मुझ में अर्थात अत्मतत्व में लगी रहे. मैं सदा परोक्ष अपरोक्ष रूप से प्रेम करता हूँ पर उसे प्रकट नहीं करता. मेरा प्रेम अहैतुक है.    
 जैसा मैं हूँ वैसी तुम हो. मुझमें तुममें भेद नहीं है

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