Friday, November 18, 2011

गीता/GITA - तीन प्रकार की श्रृद्धा और तीन प्रकार का देव पूजन- प्रो. जोशी बसन्त


    तीन प्रकार की श्रृद्धा और तीन प्रकार का देव पूजन  

संसार में साधरण जनों की अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार की श्रृद्धा होती है तदनुसार ही वह देव यजन आदि पूजन आचरण करते हैं.

भगवद्गीता में देव यजन को बताते हुए तीन प्रकार की श्रद्धा के अनुसार सात्विक, राजस और तामसी तीन प्रकार का पूजन करने वाले लोगों का पूजन आचरण बताया है.

सात्विक पूजें देव को, यक्ष रक्ष रज जान
प्रेत भूत को पूजते तामस जन वे पार्थ।। 4-17।।

सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष देव पूजन, यज्ञ, उपासना करते हैं। रजोगुणी पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा तमोगुणी भूत प्रेत को पूजते हैं, शमशान साधना, कपाल पूजा आदि करते हैं।

त्याग शास्त्र विधि पुरुष जो, तपते तप में घोर
दम्भ अहं से युक्त वे, काम राग बल युक्त।। 5-17।।

जो शास्त्र अनुकूल नियमों को नहीं मानते हुए केवल अपने मन से साधारण अथवा कठिन पूजन, आचरण करते हैं, अपने को कष्ट देते हैं, कई-कई दिन व्रत करते हैं, कोई गड्ढे के नीचे जाते हैं, पेड़ में लटकते हैं, बाल दाड़ी नोचते हैं, दूसरे को पीड़ा देते हैं, पशु बलि, नर बलि देते हैं। यह सभी मनुष्य दम्भ अहंकार से युक्त अनेक सांसारिक भोगों की इच्छा लिए हुए पाखण्ड से इस प्रकार की तुच्छ पूजा आदि कार्य करते हैं।

कृष करते वे भूत सब देह और चित आत्म
मूढ़ भाव अस ये पुरुष, निश्चय आसुर जान।। 6-17।।

इनका इस प्रकार के दम्भ पाखण्ड युक्त आचरण, जो स्वयं को और दूसरे को कष्ट देने वाला है मुझ जीवआत्मा को अपार पीड़ा देते हैं। इनके इस आचरण से भ्रान्ति और मूढ़ता अधिक और अधिक हो जाती है तथा आत्म तत्व पूर्णतया छिप जाता है। ये मूढ़ स्वभाव वाले असुर स्वभाव को धारण किये होते हैं। इनके लिए प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष कार्य ही सब कुछ होता है। इनका आत्मतत्व विस्मृत हो जाता है।


इन सब में सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष उत्तम हैं क्योंकि सत्व आचरण और देव पूजन से  निरन्तर चित्त शान्त करते हुए व आत्म ज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं.
आत्मतत्त्व का अभिलाषी सदा स्वरूप स्थिति की खोज करते हुए केवल आत्मा का ही चिन्तन करता है, आत्मा को ही नमस्कार करता है अपनी आत्मा में रमण करता है और आत्मतत्त्व को ही पाता है.


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Thursday, November 17, 2011

गीता - देव पूजन और सकामकर्म-प्रो. बसन्त


                           देव पूजन 

भगवदगीता आत्मतत्त्व शोध केंद्रित ग्रन्थ शास्त्र है और यह तत्त्व आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए है. आत्म ज्ञान के इच्छुक मनुष्य के लिए भोग और स्वर्ग हेतु देव पूजन और सकामकर्म का कोई स्थान नहीं है.
परन्तु भगवद्गीता में विधि द्वारा स्थापित जन सामान्य के लिए यह भी उपदेश है कि स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करोगुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो. वह सभी देव तुम्हें उन्नत करेंइस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो

कल्प आदि विधि ने रचा, यज्ञ सहित भू लोक
यज्ञ करें कल्याण को, पूर्ण कामना होय।। 10-3।।

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।

उन्नत होंगे देवगण, तुम उन्नत हो जाव
प्रति उन्नत करते हुए, परम श्रेय को पाव।। 11-3 ।।

स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करो। गुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो और वह सभी देव तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो।

यज्ञ सम्मुन्नत देवगण, देंगे इच्छित भोग
भोगे अर्पित देव बिन, निश्चय ही वह चोर।। 12-3।।

स्वधर्म पालन स्वभाव से रहते हुए करते हुए सभी दैव तुम्हारी पूजा स्वीकार कर तुम्हें इच्छित भोग देंगे अर्थात तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेंगे और जो भी भोग देव कृपा से प्राप्त हो उसे जो मनुष्य उन्हें अर्पित किये बिना भोगता है, वह चोर है। यह सम्पूर्ण सृष्टि जीव मय है, जीव स्वयं अधिदैव है। यह जहाँ है वहाँ चैतन्य है। कहीं यह प्रकट रूप में कहीं अप्रकट रूप में है। सभी कुछ ईश्वर का प्रसाद है, सभी में वही ईश, जीव रूप में व्याप्त है, वही दैव है, वही अधिदैव है, यह समझकर सभी भोग सभी भूतों को अर्पित करते हुए देव यजन करना तथा स्वभाव में स्थित रहना परम कल्याण कारक बताया है।

आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए सकाम पूजन का निषेध है, यहाँ तक कि स्वर्ग की इच्छा भी त्याज्य है परन्तु यह भी यथार्थ है कि अनेक जन्मों का योग भ्रष्ट पुरुष ही आत्मज्ञान और निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होता है. साधारण मनुष्य अनेक इच्छा लिए जीता है, इसलिए फल की इच्छा के साथ  ईश्वर और देव पूजा करता है. इसलिए साधारण मनुष्य के लिए उपदेश है अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। अपनी उन्नति करो.

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