Thursday, November 17, 2011

गीता - देव पूजन और सकामकर्म-प्रो. बसन्त


                           देव पूजन 

भगवदगीता आत्मतत्त्व शोध केंद्रित ग्रन्थ शास्त्र है और यह तत्त्व आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए है. आत्म ज्ञान के इच्छुक मनुष्य के लिए भोग और स्वर्ग हेतु देव पूजन और सकामकर्म का कोई स्थान नहीं है.
परन्तु भगवद्गीता में विधि द्वारा स्थापित जन सामान्य के लिए यह भी उपदेश है कि स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करोगुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो. वह सभी देव तुम्हें उन्नत करेंइस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो

कल्प आदि विधि ने रचा, यज्ञ सहित भू लोक
यज्ञ करें कल्याण को, पूर्ण कामना होय।। 10-3।।

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।

उन्नत होंगे देवगण, तुम उन्नत हो जाव
प्रति उन्नत करते हुए, परम श्रेय को पाव।। 11-3 ।।

स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करो। गुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो और वह सभी देव तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो।

यज्ञ सम्मुन्नत देवगण, देंगे इच्छित भोग
भोगे अर्पित देव बिन, निश्चय ही वह चोर।। 12-3।।

स्वधर्म पालन स्वभाव से रहते हुए करते हुए सभी दैव तुम्हारी पूजा स्वीकार कर तुम्हें इच्छित भोग देंगे अर्थात तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेंगे और जो भी भोग देव कृपा से प्राप्त हो उसे जो मनुष्य उन्हें अर्पित किये बिना भोगता है, वह चोर है। यह सम्पूर्ण सृष्टि जीव मय है, जीव स्वयं अधिदैव है। यह जहाँ है वहाँ चैतन्य है। कहीं यह प्रकट रूप में कहीं अप्रकट रूप में है। सभी कुछ ईश्वर का प्रसाद है, सभी में वही ईश, जीव रूप में व्याप्त है, वही दैव है, वही अधिदैव है, यह समझकर सभी भोग सभी भूतों को अर्पित करते हुए देव यजन करना तथा स्वभाव में स्थित रहना परम कल्याण कारक बताया है।

आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए सकाम पूजन का निषेध है, यहाँ तक कि स्वर्ग की इच्छा भी त्याज्य है परन्तु यह भी यथार्थ है कि अनेक जन्मों का योग भ्रष्ट पुरुष ही आत्मज्ञान और निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होता है. साधारण मनुष्य अनेक इच्छा लिए जीता है, इसलिए फल की इच्छा के साथ  ईश्वर और देव पूजा करता है. इसलिए साधारण मनुष्य के लिए उपदेश है अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। अपनी उन्नति करो.

 ........................................................................................................................

No comments:

Post a Comment