Sunday, September 18, 2011

गीता के श्लोक - BASANTESHWARI - इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है/प्रो.बसन्त


श्री भगवान अर्जुन को सृष्टि का रहस्य बताते हुए कहते हैं; इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है अर्थात जहाँ से सृष्टि जन्मी है परमात्मा उससे परे है और माया जिसे अज्ञान कहा है इस सृष्टि का मूल है। उस मूल से परे ब्रह्म से यह अश्वत्थ वृक्ष पैदा होता है।

                  
 न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा 
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा 
 इस अश्वत्थ वृक्ष का स्वरूप संसार में नहीं दिखायी देता क्योंकि इसका न आदि है न अन्त अर्थात कहाँ से प्रारम्भ हुआ.
                          अश्वत्थ
       
                                अव्यक्त
                             (उत्तम पुरुष)
                       
                                अव्यक्त
                                (जीव)
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             ज्ञान शक्ति                        क्रिया शक्ति

                           अश्वत्थ -माया
                           (अपरा प्रकृति)
   
               सत्..............रज  ...............  तम
                       
                              अहंकार
                    
                                बुद्धि
                   
                                 मन
    शब्द.......    स्पर्श... .. प्रभा  ........ रस   .........गन्ध
    
    आकाश          वायु         अग्नि       जल        पृथ्वी

                               ज्ञानेन्द्रियां
                                       
                               वासना

                              कर्मेन्द्रियां
     
                                विषय
                     
                                चेष्टा
                      
                                कर्म

                          संसार-बन्धन


अविनाशी अश्वत्थ यह नीचे शाखा ऊपर मूल
छंद इसके पर्ण हैं, जाने विज्ञ विभेद।। 1।।

श्री भगवान अर्जुन को सृष्टि का रहस्य बताते हुए कहते हैं; इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है अर्थात जहाँ से सृष्टि जन्मी है परमात्मा उससे परे है और माया जिसे अज्ञान कहा है इस सृष्टि का मूल है। उस मूल से परे ब्रह्म से यह अश्वत्थ वृक्ष पैदा होता है। माया इस वृक्ष का मूल है, इस वृक्ष का फैलाव ऊपर से नीचे की ओर है। माया (अज्ञान) उस अव्यक्त (ज्ञान) को आच्छादित कर सुला देती है। फिर उस माया में अव्यक्त के बीज से माया का अंकुर फूटता है। परम शुद्ध ज्ञान को अज्ञान (माया) क्रमशः अधिक-अधिक आवृत्त करते जाता है। यही अश्वत्थ वृक्ष की ऊपर से नीचे की ओर फैलने की गति है। यह माया का वृक्ष भी अविनाशी है। वेद (छन्द) इसके पत्ते हैं अर्थात वेद भी माया के पार नहीं जा पाते हैं, अज्ञान से प्रभावित होने के कारण उनकी पहुंच सीमित है। जो मनुष्य इस अश्वत्थ वृक्ष को तत्व से जानता है वही यथार्थ ज्ञानी है।

त्रिगुण विषय कोपल शाखाएं, गहराई सब लोक
कर्म बन्धन की जड़ें, फैली चारों ओर ।। 2।।

इस अश्वत्थ वृक्ष को माया सत्त्व रज तम तीन गुणों से सींचती है। विषय भोग इसके कोपल हैं, चौरासी लाख योनियाँ इसकी शाखाएं हैं, जो ऊपर नीचे सभी जगह फैली हुयी हैं। कर्म बन्धन इस माया रूपी वृक्ष की जड़ हैं, यह जड़ें सभी ओर फैली हुयी हैं। इस अश्वत्थ वृक्ष को हम मानव देह में भी देख सकते हैं। ब्रह्मरंध्र में अव्यक्त परमात्मा का निवास है। इस अश्वत्थ वृक्ष का आज्ञा चक्र से लेकर मूलाधार तक तना है। आज्ञा चक्र से क्रमशः विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार में ज्ञान क्रमशः कम होता जाता है। अनाहत और उसके नीचे चक्रों में तीन गुणों का प्रभाव अधिक और अधिक हो जाता है। यहीं से माया मोह राग द्वेष का जन्म होता है। कर्म में प्रवृत्ति, कर्मफल आसक्ति का फैलाव शरीर में होता जाता है। इसे इस रूप में भी देख सकते हैं ज्ञान, माया (अज्ञान), बुद्धि, मन, शब्द, स्पर्श, प्रभा, रस, गन्ध, ज्ञानेन्द्रियाँ, वासना, कर्मेन्द्रियाँ, विषय, संसार, कर्मफल।

इसका रूप न प्राप्त यहां है, आदि अन्त स्थित नहीं
द्रढ़ मूल के अश्वत्थ को तू,वैराग्य शस्त्र से काट दे।। 3।।

इस अश्वत्थ वृक्ष का स्वरूप संसार में नहीं दिखायी देता क्योंकि इसका न आदि है न अन्त अर्थात कहाँ से प्रारम्भ हुआ, कहाँ इसका अन्त होगा कोई नहीं बता सकता। यही नहीं यह वृक्ष अच्छी प्रकार स्थित भी नहीं है, क्योंकि यह नाशवान है। इस वृक्ष की जड़ें बहुत ही गहराई तक गयी हैं। अज्ञान इस वृक्ष की जड़ है, जो इतनी प्रभावशाली है कि उसने अव्यक्त परब्रह्म को भी आच्छादित कर रक्खा है। इसको काटने का एक ही उपाय है कि वैराग्य रूपी शस्त्र मन में लेकर इस अज्ञान के विशाल अश्वत्थ वृक्ष पर ज्ञान की धार का प्रहार किया जाय। सतत् अभ्यास, वैराग्य द्वारा प्राप्त ब्रह्म ज्ञान के होने पर ही, यह वृक्ष नष्ट होता है।

जहाँ गए नहिं लौटते, भली भांति खोजे परम
जिससे फैली आदि वृत्ति,आदि पुरुष की शरणागती।। 4।।

वैराग्य से इस संसार रूपी वृक्ष को काटकर उस परम पद को भली प्रकार खोजना चाहिए। यह वह स्थिति है जिसे प्राप्त होकर इस वृक्ष के फल उस मनुष्य को ललचा नहीं सकते हैं। संसार चक्र से वे मुक्त हो जाते हैं। उस परब्रह्म परमात्मा से ही यह संसार की प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है क्योंकि वह ब्रह्म इसकी उत्पत्ति मूल से ऊपर है, ‘उर्ध्व  मूलहै। ऐसे आदि परम परमात्मा में निरन्तर आत्मरत रहना चाहिए। उस आत्मतत्व में निमग्न पुरुष पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होकर उसी में स्थित हो जाता है।

रहित मान अरु मोह से, है स्थित अध्यात्म
काम नष्ट सुख-दुःख विमुक्त,नाश रहित पद प्राप्त।। 5।।

जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिस प्रकार प्रकाश होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है। जिसने आसक्ति रूपी दोष को जीत लिया है अर्थात कमलवत संसार में रहता है, ऐसा विकारहीन पुरुष जो सदा आत्म स्वरूप में स्थित रहता है; ऐसे आत्मरत ब्रह्म ज्ञानीजिसकी सभी कामनायें नष्ट हो गयी हैं, भुने बीज के समान जिसमें कामना का अंकुर नहीं फूट सकता, सुख-दुःख द्वन्द्वों से मुक्त होकर परम स्थिति अव्यक्तका अधिकारी होता है।

 हे आत्मन परम बोध को प्राप्त हो.


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