Saturday, September 17, 2011

वसंतेश्वरी भगवद्गीता - सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना / प्रो- बसन्त


सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। 

                  वसंतेश्वरी भगवद्गीता    
                                     रचनाकार प्रो- बसन्त

               बारहवाँ अध्याय-भक्तियोग

चित्त निरन्तर थाप तुम, भक्त करे अति प्रेम
ध्यान करें अव्यक्त जो, दोउ में को है श्रेष्ठ।। 1।।

अर्जुन बोले, हे परमेश्वर आपके अनन्य प्रेमी जो हमेशा आपको हृदय में धारण कर आप से जुड़े रहते हैं। आप में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार स्थापित कर आपसे अनन्य प्रेम करते हैं, जिनके समस्त कर्म आपके लिए होते हैं अथवा जो अविनाशी अव्यक्त परम परमात्मा का अपनी आत्मा में सदा ध्यान चिन्तन मनन करते हैं, उन दोनों भक्तों में कौन भक्त श्रेष्ठ है।

अतिशय श्रद्धा युक्त हो, नित्य युक्त मन रोक
जो भजते नर हरि रूप को वह योगिन में श्रेष्ठ।। 2।।

श्री भगवान बोले, हे अर्जुन, जो मन को सदा मुझमें लगाकर निरन्तर मुझमें जुडे़ रहते हैं अर्थात व्यवहार में मेरा स्मरण करते हैं; परम श्रद्धा से युक्त होकर जो निरन्तर मेरा भजन करते हैं, मेरी दृष्टि में वह योगी परम उत्तम हैं।

भजे एक रस नित्य को, अचल अव्यक्त अचिन्त्य
अकथनीय अक्षर परम घट घट वासी जान।। 3।।
वश कर इन्द्रिय को सभी और बुद्धि सम होय
सब भूतों के हित रहे, प्राप्त मुझी को होय।। 4।।

जो भक्त (ज्ञानी) इन्द्रियों को अष्टांग योग विधि द्वारा अथवा सभी बन्ध यथा मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि या अन्य प्रकार से भली भांति वश में करके सर्वव्यापी परमात्मा, जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता, सदा शुद्ध परम शान्त अवर्णनीय अवस्था में सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी परमात्मा को अनुभूत करने वाले, जो सब प्राणियों में सम भाव रखते हैं; स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा हुए, मुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

निराकार आसक्त हैं, कठिन परिश्रम जान
दुःखद गती अव्यक्त की देह धारि को जान।। 5।।

उस अव्यक्त जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के द्वारा नहीं जाना जा सकता जो महत् से भी महत् है अर्थात अपरा परा प्रकृति का भी आदि कारण हैं, के साधन, अनुभूति में शरीर धारी मनुष्यों को देह बुद्धि के कारण अत्याधिक परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव की देह आसक्ति अत्याधिक प्रबल है, यह छूटे  नहीं छूटती। अतः अव्यक्त की उपासना अत्याधिक कठिन है। इस में चलना कुल्हाड़ी की धार पर चलना है।

सदा परायण भक्त मम, करे समर्पण कर्म
अनन्य योग रत ध्यान जो, मोहि भजे वह सन्त।। 6।।

परन्तु जो भक्त सदा मेरा चिन्तन करते हैं, अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए कर्म और उनके फलों को परमात्मा को अर्पित कर देते हैं, उनका उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना, व्यवसाय आदि सभी कर्म मेरे लिए होते हैं। जो न डिगने वाले अर्थात एक निष्ठ रूप से मुझसे जुड़े रहते हैं, मेरा ध्यान करते हैं, सदा मेरे समीप रहते हैं, स्मरण करते हैं, ऊँ का ही ध्यान करते हैं।
ईश्वर की सगुण-निर्गुण उपासना को अच्छी प्रकार समझना होगा। सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। दूसरे रूप में साक्षी भाव से अपने शरीर को, मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियों व उनके कार्यों को देखना सगुण उपासना है। चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना। अपने में आत्मरूप परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना। जगत (सगुण) में ब्रह्म देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना घट-घट रमता राम रमैयामन वाणी कर्म से महसूस करना सगुण भक्ति है। यही व्यवहार में स्मरण करना है। अव्यक्त जिसके बारे में न कुछ कहा जा सकता, न समझा जा सकता, न जाना जा सकता, वह अव्यक्त परब्रह्म एक स्थिति है, परमगति है। वहाँ स्मरण भी नहीं रहता, निराकार स्थिति भी बिना सहारे के हो जाती है। उसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है। वहाँ शून्य समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है, अनहद् भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है; केवल अव्यक्त परब्रह्म परमतत्व ही स्थित रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों को मन सहित अष्टांग योग विधि द्वारा विषयों की ओर जाने से रोक कर अथवा सभी प्रकार के बन्ध सिद्ध करके जैसे मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि लगाकर कुण्डली जागरण द्वारा अथवा श्री भगवान के उपदेशानुसार शुद्ध स्थान में आसन जो न अधिक ऊँचा हो न नीचा लगाकर, सिर, गरदन, शरीर को एक सीध में करके नासिका के अग्र भाग को देखता हुआ तथा अन्य दिशाओं को न देखकर, प्राण वायु को रोककर, प्रशान्त मन होकर, परमात्मा के नाम ऊँ को प्राणों के साथ भौहों के मध्य में स्थापित करे तथा निरन्तर सतत् अभ्यास और वैराग्य से सिद्ध हुआ परम ज्ञानी अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होता है । वीतरागी पुरुष इन्द्रियों के व्यवहार से उदासीन हो विचरता है जबकि सगुण उपासक सभी कार्योँ को परमात्मा को अर्पण करते हुए सदा उसका स्मरण करता है।

मम अनुरागी चित्त से करे भक्ति हे पार्थ
मृत्यु संसार समुद्र से करता उनको पार।। 7।।

हे अर्जुन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्त जो हैं, मैं उन्हें मृत्यु रूपी संसार से उद्धार कर देता हूँ। जब भी कोई भक्त मुझमें अपना चित्त अर्पण करता है मैं उसमें प्रवेश कर जाता हूँ, वहाँ विराट होता जाता हूँ और एक दिन सम्पूर्ण चित्त को अपने में समाहित कर लेता हूँ। मेरा यह निश्चय भी है कि मैं अपने भक्त का योगक्षेम को वहन करूंगा। अतः भक्त का उद्धार अवश्य होता है।

मुझमें मन अपना लगा और लगा मम बुद्धि
इस कारण मम धाम बस, इसमें संशय नाहिं।। 8।।

मुझमें मन लगा, मुझमें बुद्धि लगा। जीव व इन्द्रियों के बीच में जो ज्ञान है वह मन कहलाता है। आत्मा और जीव के बीच जो ज्ञान है वह बुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में संशयात्मक ज्ञान मन है, निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है। अतः मन और बुद्धि को मुझमें लगा। मन की दिशा बाहर की जगह मेरी ओर मोड़ दे तथा बुद्धि की दिशा भी जीव से आत्मा की ओर मोड़। इस प्रकार मन बुद्धि मुझमें लगाने से तू मुझ आत्मरूप परमात्मा में स्थित होकर उस अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होगा।

यदि समर्थ है तू नहीं, मन मम अचल कराहिं
इच्छा कर मम प्राप्ति की, अभ्यास योग कौन्तेय।। 9।।

यदि तू मन को मुझमें (आत्मरूप) लगाने से असमर्थ है अर्थात तू यह समझता है कि हर समय मन आत्म चिन्तन में नहीं लगाया जा सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रहा जा सकता, ध्यान नहीं किया जा सकता आदि तो तू मन लगाने का मुझमें अवश्य अभ्यास कर। इससे मन की बाहर की दिशा रूकने लगेगी। उसकी आदत बदल जायेगी। वह विषयों से छूट कर आत्मा की ओर जाने लगेगा और धीरे-धीरे अभ्यास से इसका भटकना रूक जायेगा और यह आत्मा में विलीन हो जायेगा।

अभ्यास योग असमर्थ है, तो कर मम हित कर्म
मम निमित्त कर कर्म को, सिद्धि प्राप्त तू पार्थ।। 10।।

यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ है, मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर भटकने से रोकने में असमर्थ है, ध्यान, साधन आदि नहीं कर सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रह सकता, अहंकार नहीं छोड़ सकता आदि तो भी मैं तुझे आत्म योग के लिए सरल उपाय बताता हूँ। तू अपने स्वाभाविक धर्म के आधार पर अर्थात जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है तथा तेरे जन्मगत जो स्वाभाविक कर्म हैं उनको सरलता पूर्वक कर और सभी कर्म मुझे अर्पण कर दे। तेरा उठना-बैठना, खाना-पीना, व्यवसाय मेरे प्रति हो। मुझे सब कर्म अर्पित करते हुए तेरा मन, बुद्धि मुझमें एक निष्ठ हो जायेगी परिणामस्वरूप तू परम स्थिति को प्राप्त होगा।

यदि इसमें असमर्थ है आश्रित मम उद्योग
स्थित कर मम बुद्धि को, सर्व कर्म फल त्याग।। 11।।

यदि मेरे निमित्त कर्म भी तुझसे नहीं हो सकते अथवा तू अपने कर्म मुझे अर्पित नहीं कर सकता, तो यत्नशील होकर सभी कर्मों के फल को मुझे दे दे। जब तू कोई काम करे तो उस समय मेरा चिन्तन करे तथा जब वह कर्म समाप्त हो तो भी मेरा चिन्तन कर और उसका जो भी परिणाम हो उसे मुझ परमात्मा की इच्छा समझ। धीरे-धीरे इस अभ्यास से तू निष्काम होने लगेगा और तेरा योग सिद्ध हो जायेगा।

ज्ञान श्रेष्ठ अभ्यास से ध्यान श्रेष्ठ है ज्ञान
सकल कर्म का त्याग ध्यान से,शान्ति त्याग से प्राप्त।। 12।।

अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से बुद्धि द्वारा परमेश्वर को जानना व जुड़ना श्रेष्ठ है, तत्पश्चात उसका चिन्तन, मनन, ध्यान, श्रेष्ठ है, उससे भी अधिक सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए अथवा इन्द्रिय दमन कर अनासक्त होकर निष्काम कर्म श्रेष्ठ है। निष्काम कर्म होने से चित्त की उद्विग्नता जाती रहती है और स्वाभाविक रूप से शान्ति प्राप्त होती है।

द्वेष भाव से रहित जो सब भूतों का मित्र
अहंकार जिसमें नहीं, करुणा उसके चित्त
सुख दुःख सम है वह सदा और क्षमी है जान।। 13।।
जिसमें ममता है नहीं योगी सदा संतुष्ट
मन इन्द्रिय वश में किया द्रढ़ निश्चय से युक्त
मम अर्पित मन बुद्धि जो, प्रिय है मुझको भक्त।। 14।।

जो सभी प्राणियों से द्वेष भाव रहित हैं, सबका मित्र है अर्थात अपना पराया का भाव नहीं है, स्वाभाविक करुणा जिसमें है, जो ममता रहित है अर्थात संसार की मोह माया से उदासीन है, अहंकार रहित है और सुख दुख में समान है, क्षमावान है, जो अपने में सदा संतुष्ट रहता है जिसने यत्न करके मन इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जिसका निश्चय परमात्मा के प्रति अडिग है, जिसने अपने मन बुद्धि को मुझमें सदा सदा के लिए लगा दिया है, इस प्रकार निज स्वरूप को खोजने व जानने वाला मेरा भक्त मुझको परम प्रिय है। वह परमात्मा का प्रिय अर्थात परम गति का अधिकारी है।

लोक प्राप्त उद्वेग नहिं जो उद्वेग नहिं जीव
अमर्ष, हर्ष, उद्वेग, भय मुक्त परम प्रिय भक्त।। 15।।

जिससे संसार को त्रास नहीं होता और जो संसार से उद्विग्न नहीं होता अर्थात अच्छे-बुरे, सरल-दुष्ट आदि सभी के प्रति कल्याण की भावना रखता है ऐसा योगी जो किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं होता, दूसरे की उन्नति से जिसे जलन नहीं होती, जिसे किसी भी प्राणी से भय और त्रास नहीं है, ऐसा स्वरूप में रमण करने वाला मेरा अति प्रिय भक्त है।

आकांक्षा से रहित जो शुचि दक्ष निरपेक्ष
दुःखहीन अक्रिय वही मुझको अति प्रिय भक्त ।। 16।।

जिसमें कामना का अभाव हो गया हो वह सदा आत्म तृप्त रहता है, वह महात्मा परम पवित्र होता है, उसका सानिध्य पवित्र होता है। सभी के लिए सदा समभाव रखने वाला पक्षपात रहित होता है। उसे लोक परलोक के कष्ट नहीं व्यापते हैं, क्योंकि वह निष्काम है, उदासीन है। सभी कर्मों को जिसने प्रभु अर्पण कर दिया है, इस प्रकार जो कर्मों के प्रारम्भ का त्यागी है वह स्वरूप स्थित महात्मा मुझे परम प्रिय है।

राग द्वेष अरु शोक नहिं और नहीं हर्षात्
जिसने त्यागे शुभ अशुभ,भक्ति युक्त प्रिय भक्त।। 17।।

जो आत्मरत आत्मानन्द से अधिक कुछ नहीं मानता अतः संसार की कोई भी वस्तु उसके हर्ष का कारण नहीं होती, न किसी से द्वेष करता है क्योंकि सदा मानता है कि मैं और वह एक ही हैं। जिसे न कोई चिन्ता है, जिसकी न कोई कामना है, जिसने अपने सभी कर्म प्रभु अर्पण कर दिए हैं, ऐसा निष्काम कर्म योगी जो स्वरूप स्थित है वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

जो सम रिपु अरु मित्र में और मान अपमान
सुख दुख अरु शीतोष्ण सम,आस रहित प्रिय भक्त।। 18।।

अद्वैत महात्मा जो सदा ब्रह्मानन्द में स्थित हैं, उनके लिए शत्रु और मित्र समान हो जाते हैं। सरदी-गरमी, सुख-दुःख की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता अतः सभी परिस्थितियां जिसके लिए समान हैं, जिसकी आसक्ति का बीज नष्ट हो गया है, मुझे अति प्रिय है।

निन्दा स्तुति जान सम, येन केन संतुष्ट
मौनी घर से हीन जो, स्थित धी प्रिय भक्त ।। 19।।

जिस समत्व योगी के लिए निन्दा और संस्तुति एक समान है अर्थात निन्दा होने पर जिसे क्रोध नहीं आता और प्रशंसा होने पर प्रसन्न नहीं होता, जो वासना रहित मौन में स्थित है। जिस भांति भी शरीर निर्वाह हो, सभी स्थिति में संतुष्ट है। जो किसी स्थान विशेष से लगाव नही रखता अर्थात घर में रहते हुए घर को सराय समझ कर रहता है। बुद्धि जिसकी सूक्ष्म होकर निश्चित हो गयी है ऐसा स्वरूप स्थित महात्मा मुझे अति प्रिय है।

जो श्रद्धा से युक्त हों, मम परायण भक्त
धर्म अमृत इसको भजें, मुझको अति प्रिय भक्त।। 20।।

जो श्रद्धा युक्त पुरुष मुझमें अपना मन बुद्धि स्थापित करके इस परम आत्म ज्ञान का सेवन करते हैं, उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है और आत्म स्थित ऐसे पुरुष मुझे अति प्रिय हैं।

श्री भगवान द्वारा इस अध्याय में तथा अन्य स्थानों में मैं, मेरे, मुझे शब्दों का प्रयोग किया है, वह आत्मा अथवा परमात्मा बोधक शब्द हैं। मुझे प्रिय है का अर्थ है सदा आत्मरूप परमात्मा को प्रिय हैं।

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