Vasanteshwari Bhagwadgita
गीता सार
आत्मा
1-आत्मा ही परमात्मा है, वही परब्रह्म है।
2-आत्मा का देह भाव, आत्मा में अहं भाव जीवात्मा है।
3-जीवात्मा और आत्मा दोनों अव्यक्त हैं, अविनाशी और अनादि हैं।
4-आत्मतत्व सर्वत्र व्याप्त है।
5-सृष्टि आत्मा का ही विस्तार है ।
6- आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है।
7-आत्मा को कोई नही मार सकता, शस्त्र इसे काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती। आत्मा किसी को नहीं मारता है।
8-आत्मा अजर अमर है परन्तु इसके शरीर सदा मरते हैं।
9-आत्मा पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शान्त अवस्था है।
10-आत्मतत्व में स्थित होना ही परम स्थिति है, परम पद है।
कर्म
1-कर्म तुम्हारे अधिकार में होने चाहिए।
2-कर्म, अकर्म को और विकर्म (निषिद्ध कर्म) को जानना चाहिए। कर्म की गति बड़ी जटिल है।
3-कर्म ईश्वर के निमित्त होने पर कर्म दोष नहीं होता है।
4-स्वभावगत कर्म होने पर अर्थात अपनी प्रकृति के अनुकूल आचरण करने पर भी कर्म दोष नहीं होता है।
5-कर्म आसक्त होकर करना ही आत्मतत्व का मार्ग है। अनासक्त कर्म ही कर्म योग है, यही सन्यास अथवा ज्ञान योग है।
6-सकाम कर्म अच्छे हों या बुरे कर्म बन्धन में बंधते हैं।
अश्वत्थ
1- अव्यक्त
2-उत्तम पुरुष- परमात्मा –ब्रह्
....................................................
ज्ञान शक्ति क्रिया शक्ति
3-अक्षर ब्रह्म
ब्रह्म की अज्ञानमाय उपाधि (प्रकृति बीज रूप में स्थित ) यहाँ से अश्वत्थ
जन्म लेता है.
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4-1 क्षर पुरुष –जीव<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>> 2 प्रकृति (माया)
( जीव आता जाता, जन्म लेता और मरता दिखाई देता है)
ज्ञान शक्ति (क्रियाशील
अवस्था ) ................... क्रिया शक्ति
5- माया (अपरा प्रकृति)
सत्..............रज ............... तम
आकाश वायु अग्नि जल
पृथ्वी
6-माया बद्ध जीव
अहंकार
बुद्धि
मन
शब्द....... स्पर्श...
.. प्रभा ........ रस .........गन्ध
आकाश वायु अग्नि जल
पृथ्वी
ज्ञानेन्द्रियां
वासना
कर्मेन्द्रियां
विषय
चेष्टा
कर्म
संसार-बन्धन
1- बंधन से मोक्ष
1-ईश्वर- (उत्तम पुरुष +माया आधीन
)- जीव जब क्षर, अक्षर स्थिति को पार कर जाता है , अश्वत्थ वृक्ष का विनाश हो जाता
है ईश्वर प्रगट होता है. अपनी दिव्यताओं के
साथ चमकता है.
2-मोक्ष- जीव जब अक्षर ब्रह्म
को प्राप्त कर लेता है.
साधना
अ-साधारण मनुष्य के लिए।
ब-साधकों के लिए।
अ-साधारण मनुष्य के लिए
1-स्वधर्म पालन अर्थात अपने स्वभाव प्रकृति में स्थित रहना।
2-गुण धर्म के अनुसार अर्थात अपने जन्म व स्वभाव के अनुसार कर्म करना।
3-स्वभाव में स्थित रहने से सरलता आती है, उद्विग्नता समाप्त होती है। आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए सरलता आवश्यक है। अस्वाभाविक प्रवृत्ति से जीवन जटिल हो जाता है, अपनी प्रकृति विरुद्ध आचरण से असुर वृत्तियाँ बढ़ती हैं।
ब - साधकों के लिए
1-आसन न बहुत ऊंचा न नीचा होना चाहिए। आसन के ऊपर कुश, मृगछाला अथवा ऊनी वस्त्र विछायें।
2-शरीर गर्दन सिर एक सीध में रखकर स्थिर और सुख पूर्वक बैठना चाहिए।
3-नासिका के अग्र भाग को देखना।
4-ऊँ परमात्मा का नाम है, व्यवहार में सदा परमात्मा को स्मरण करना है।
5-प्राण ऊपर ले जाते हुए भौहों के मध्य में स्थापित करना।
6-साक्षी भाव से शरीर की क्रियाओं और संवेदनाओं को देखना।
7-हमेशा जाग्रत भाव में स्थित रहना।
8-न अधिक खाना न कम खाना। आहार विहार संयमित होना चाहिए।
9-मन को बार बार विषयों से हटाकर आत्मतत्व परमात्मा में लगाना। इसी का निरन्तर अभ्यास करना।
10-भय रहित होना। मन की पवित्रता।
11-योग धैर्य से न उकताये चित्त से करना चाहिए।
आत्मतत्व का अधिकारी पुरुष
1-आत्मतत्व का अधिकारी पुरुष कोई विरला ही होता है।
2-श्रद्धावान होना और मन सहित इन्द्रियों का वश में होना आवश्यक है।
3-आत्म स्थित होने के लिए निरन्तर मनन, चिन्तन, अभ्यास, वैराग्य आवश्यक है।
4-अनासक्त भाव से स्वाभाविक कर्म में रत होना है।
5-वीतरागी, क्रोध, भय से रहित सब भूतों में विश्वात्मा हुआ और सब भूतों को अपनी आत्मा में महसूस करता है।
6-मन बुद्धि से सदा आत्मतत्व में आसक्त रहना आवश्यक है।
7-परमात्मा निमित्त कर्म करना अथवा सभी कर्मफलों को परमात्मा में अर्पित करना चाहिए।
8-वह श्रद्धा युक्त सदा आनन्द में निमग्न रहता है, शत्रु मित्र समान हो जाते हैं।
ज्ञान और कर्म योग
योग का अर्थ है जुड़ना अर्थात ईश्वर से जुड़ना, ज्ञान द्वारा ईश्वर से जुड़ना, कर्म द्वारा ईश्वर से जुड़ना।
1-बुद्धि से आत्मतत्व को खोजना ज्ञान है। प्रत्येक कर्म अनासक्त भाव से करना कर्म योग है।
2-गुणों का कारण माया है, संसार गुणों का खेल है यह जान मन, बुद्धि, इन्द्रियों से सभी क्रियाओं एवं अहम् बुद्धि को त्यागना, कर्ता भाव न रखते हुए एक ही भाव से आत्म स्थित होना ज्ञान अथवा सन्यास योग है।
3-कर्म, कर्मफल में आसक्ति त्यागकर सब कर्म परमात्मा के निमित्त करते हुए सब कर्मफलों को उसके अर्पण करना कर्म योग है।
समत्व योग-स्थितप्रज्ञ
1-जो विद्याविनय सम्पन्न, ब्राहमण, गौ, हाथी और चाण्डाल में समभाव रखते हैं।
2-प्रिय को पाकर हर्षित नहीं होते और अप्रिय को पाकर दुःखी नही होते।
3-सहृद मित्र बैरी उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धुगण, धर्मात्मा और पापी में समभाव रखते हैं।
4-सदा साक्षी भाव से स्थित रहते हुए शरीर की क्रियाओं के प्रति उदासीन रहते हैं।
5-सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागी, आत्मरत आत्मा में संतुष्ट, समत्व योगी हैं।
6-किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थ सम्बन्ध नहीं होता।
7-जिनका मन दुःख में उद्विग्न नहीं होता और सुख से प्रीति नहीं करते, क्रोध और भय से जो मुक्त हैं।
8-कछुए के समान वह सदा अपनी इन्द्रियों को अन्दर की ओर किये रहते हैं। उनकी बुद्धि स्थिर होती है।
परमात्मा और प्रकृति
1-आत्मतत्व परमात्मा अव्यक्त है।
2-परमात्मा की दो प्रकृति हैं।
अ-परा प्रकृति ब-अपरा प्रकृति
परा प्रकृति अव्यक्त है। अपरा प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त है।
3-परा-अपरा प्रकृति के संयोग से सभी भूतों का जन्म होता है।
4-परा प्रकृति को क्षेत्रज्ञ कहा है वही अधिदैव है।
5-शरीर जो परा-अपरा प्रकृति का संयोग है उसे क्षेत्र कहा है।
6-अपरा प्रकृति जड़ प्रकृति है इसे अधिभूत कहा है। इसे 36 भागों में विभाजित किया है।
7-आत्मतत्व परमात्मा को अधियज्ञ कहा है।
8-स्वभाव को अध्यात्म कहा है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान, आनन्द, शान्ति है। जीव स्वभाव प्रकृति जन्य है
सगुण-निर्गुण
सगुण
1-सगुण उपासना का अर्थ है, सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना।
2-अपने स्वभाव में रहते हुए प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझना।
3-उनका उठना बैठना, सोना, खाना पीना, व्यवसाय आदि सभी कार्य आत्मतत्व परमात्मा के लिए होते हैं।
4-साक्षी भाव से अपने शरीर मन बुद्धि अहंकार इन्द्रियों के कार्यो को देखना।
5-चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना, अपने आत्म रूप में परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना।
6-जगत को ब्रह्म मय देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,आकाश आदि सब जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना।
निर्गुण
1-परमात्मा अव्यक्त है जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार द्वारा नहीं जाना जा सकता है।
2-परमात्मा महत् ब्रह्म (प्रकृति) से भी महत् है।
3-अष्टांग योग विधि, कुण्डलनी जागरण आदि से मन सहित इन्द्रियों को वश में करते हुए अव्यक्त का अनुभव करना।
4-वह अव्यक्त तुरीयातीत अवस्था है, वहां शून्य भी समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है।
5-वहाँ अनहद भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है।
6-अव्यक्त के साधकों के लिए श्री भगवान ने गीता शास्त्र में सरल साधन बताए हैं
मृत्यु के बाद
गीता शास्त्र में श्री भगवान द्वारा मृत्यु के समय जीवात्मा किस प्रकार देह का त्याग करता है इसे सुस्पष्ट किया गया है। कर्मेन्द्रियाँ अपना कार्य बन्द कर देती हैं, उनका ज्ञान, जिसके द्वारा वह संचालित होती हैं, ज्ञानेन्द्रियों में स्थित हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियाँ अपना ज्ञान छोड़ देती हैं और वह ज्ञान विषय वासनाओं एंव प्रकृति सहित पंच भूतों में स्थित हो जाता है। पंच भूत भी ज्ञान छोड़ देते हैं, वह गन्ध में स्थित हो जाता है। गन्ध, रस में स्थित हो जाती है। रस, प्रभा में स्थित हो जाती है। प्रभा, स्पर्श में स्थित हो जाती है। स्पर्श, शब्द में स्थित हो जाता है। शब्द मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि अहंकार में, स्थित हो जाती है। अहंकार अपरा (त्रिगुणात्मक) प्रकृति में स्थित हो जाता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति (अपरा) जीव प्रकृति (परा) में स्थित हो जाती है। जीव अव्यक्त में अपने कर्मों अपनी प्रकृति के साथ स्थित हो जाता है।
पुनः अव्यक्त से ही जीव अपनी प्रकृति और कर्मों के साथ नवीन शरीर में बीज रूप से स्थित होकर शरीर धारण करता है तथा पूर्व जन्म की प्रकृति और कर्मानुसार कर्मफल भोगता है और यह क्रम चलता रहता है। यह सत्य है कि बीज का नाश नहीं होता है।
जीव मृत्यु के बाद किसी भी लोक में स्वप्नवत रहता है। स्वप्न में यदि कोई राजा है या कोई विषय भोग करता है तो नींद खुलने तक वह उसका पूर्ण आनन्द लेता है। इसी प्रकार यदि कोई मुनष्य स्वप्न में मल मूत्र में पड़ा रहता है, आग में जलाया जाता है अथवा अन्य कष्ट भोगता है, तो उस यातना को भी पूरे रूप से स्वप्नवत अवस्था में भोगता है। मृत्यु के बाद जीवात्मा भी देह त्यागकर पहले घोर निद्रावस्था में होता है पुनः स्वप्नावस्था में आता है और वहाँ कुछ समय या लम्बे समय, जो सैकड़ों वर्षों का भी हो सकता है अपने कर्मानुसार शुभ और अशुभ लोकों को स्वप्नवत् भोगता है। पुनः कर्मानुसार पृथ्वी लोक में आता है और वह जीव अपनी प्रकृति के अनुसार प्रकृति का संयोग कर शरीर का निर्माण करता है।
परन्तु आत्म स्थित योगी पुरूष जब देह त्याग करते हैं तो उनके संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं, उनकी विषय वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। उनका ज्ञान पूर्ण और शुद्ध हो जाता है। वह ज्ञानेन्द्रियों से लेकर आत्मा तक परम शुद्ध अवस्था के कारण आत्म रूप में जब स्थित होता है तो परम शुद्ध होता है, उसमें विषय वासनायें, कर्म बन्धन नहीं होते। वह देह से अलग हो जाता है, वह घोर निद्रावस्था अथवा स्वप्नावस्था से परे हो जाता है। स्वर्ग-नरक या अन्य दिव्य लोक उसके लिए नहीं होते क्योंकि वह प्रकृति बन्धन से मुक्त हो जाता है। समाधि अवस्था में केवल पूर्ण एवं शुद्ध ज्ञान में, जिसमें कोई हलचल नहीं, तरंग नहीं, स्थित रहता है।
अन्तिम बात
1-आत्मतत्व परमात्मा में अपना मन समस्त इन्द्रियों सहित स्थापित करना।
2-निरन्तर स्वरूप अनुसंधान करना
3-सब कर्मों में यज्ञ स्वरूप परमात्मा है जानकर सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करना।
4-सृष्टि में आत्मतत्व से बड़कर कुछ भी नहीं है यह जानकर सब देवों के देव आत्म देव को प्रणाम करना।
5-सदा आत्म चिन्तन करना आत्मा में रमण करना। ‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु’ यही ज्ञान है, यही ध्यान है, यही योग है, यही भक्ति है, यही सन्यास है, यही परम स्थिति व परम पद है।
ऊँ तत् सत्
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