Friday, December 23, 2011

geeta-मस्तिष्क और बुद्धि के धरातल –Prof.Basant


          मस्तिष्क और बुद्धि के धरातल


हमारी पृथ्वी में जीव प्रजातियों के लाखों स्वरूप हैं और आदमी  विकास का अंतिम परिणाम है. इसे  ज्ञान या मस्तिष्क  के विकास  परिणाम कहा जा सकता है. हालांकि  प्रत्येक और हर मस्तिष्क  व्यक्तिगत  इकाई  है परन्तु बुद्धि के आधार पर इसे  तेरह चरणों या भागों  में विभाजित किया जा सकता है.
1.ब्रह्मांडीय बुद्धि
2.पूर्ण विकसित बुद्धि
3.विकसित बुद्धि
4.इष्टतम बुद्धि
5.सामान्य बुद्धि
6.मन्द बुद्धि
7.अविकसित बुद्धि
8..बन्दर बुद्धि
9.उच्च पशु बुद्धि
10.निम्न पशु बुद्धि
11.कीट बुद्धि
12.वनस्पतीय बुद्धि
13.जड़ अथवा पदार्थ  
वेदांत और भगवद्गीता हमें बताता है कि पूरी तरह से विकसित बुद्धि  एक  मुक्त  आत्मा है और ब्रह्मांडीय  बुद्धि भगवान है. आम तौर पर लोग  कमजोर और औसत मस्तिष्क वाले होते हैं. केवल  दस लाख में एक अनुकूलतम मस्तिष्क होता है, सौ लाख  में एक विकसित मस्तिष्क होता है और एक सौ मिलियन में  पूरी तरह से एक विकसित  मस्तिष्क होता है. यहाँ मैं पूर्ण विकसित और ब्रह्मांडीय बुद्धि के  दो सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ. पूरी तरह से विकसित बुद्धि  की स्थिति में मसीह ने कहा, 'मैं  और  मेरे पिता एक  हैं',  अहंब्रह्मास्मि  वही  अवधारणा  है  और  ब्रह्मांडीय   बुद्धि  की  स्थिति में  भगवान कृष्ण  कहते हैं. 'मैं सभी प्राणियों और  पदार्थ का  अतिप्राचीन बीज हूँ.'
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Wednesday, December 7, 2011

गीता का मनुष्यत्व का मार्ग है स्वाभाविक कर्म-Prof.Basant


मनुष्यत्व का मार्ग स्वाभाविक कर्म

भगवद्गीता का अनासक्त कर्म योग जन सामान्य के लिए नहीं है श्री भगवान ने जन सामान्य लिए स्वाभाविक कर्म विधान बताया है.
स्वाभाविक कर्म का अर्थ है जैसी आपकी प्रकृति है वैसे कर्म में लगे रहें. जिसका खेती करना स्वभाव है उसे खेती ही करनी चाहिए वह अच्छा सैनिक या डाक्टर नहीं हो सकता. इसी प्रकार जिसका स्वभाव सैनिक का हो वह अच्छा कृषक नहीं हो सकता. शहरों और कस्बों में आजकल देखा देखी का जमाना है. पड़ोसी का लड़का इंजीनियर तो मेरा क्यों नहीं. बच्चे की रूचि और स्वभाव का कोई मूल्य इन आधुनिक माँ बाप की नजरों में नहीं है. बचपन से नम्बरों की मारा मारी का जमाना है, बच्चे स्वाभाविकता खोते जा रहे हैं. बचपन से तनाव है. चित्त उद्विग्न रहता है. अतःस्वाभाविक कर्म का ज्ञान होना, बच्चे की प्रकृति को जानना तदनुसार उसको शिक्षित करना जरूरी है. इससे चित्त की उद्विग्नता, तनाव  समाप्त हो जाता है. मन प्रसन्न और करुणामय होने लगता है. प्रोग्रेसिव होना अच्छी बात है परन्तु अपनी रूचि और स्वभाव से सम्बंधित होनी चहिये.
जन सामान्य के लिए भगवद्गीता में श्री भगवान स्वाभाविक कर्म का उपदेश देते हैं.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।35-3।

दूसरे के धर्म से गुण रहित अपना धर्म (स्वभावगत कर्म ) अति उत्तम है। दूसरे का धर्म (स्वभावगत कर्म ) यद्यपि श्रेष्ठ हो या दूसरे के धर्म (स्वभाव) को भली प्रकार अपना भी लिया जाय तो भी उस पर चलना अपनी सरलता को खो देना है क्योंकि हठ पूर्वक ही दूसरे के स्वभाव का आचरण हो सकता है, अतः स्वाभाविकता नहीं रहती। अपने धर्म (स्वभाव) में मरना भी कल्याण कारक है दूसरे का स्वभाव भय देने वाला है अर्थात तुम्हारे अन्दर सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार तुम्हारा जो स्वाभाविक स्वभाव है उसका सरलता पूर्वक निर्वहन करो। तदनुसार कर्म करो.
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते है अर्थात सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार चेष्टा करते हैं। ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा। चेष्टाएं स्वाभाविक रुप से होनी हैं फिर उन्हें क्यों हठ पूर्वक बढ़ाया जाय। अतः अधिक परिश्रम करके दिन रात काम करते हुए भोग प्राप्त करने की विशेष चेष्टा (हठ) बुद्धिमानी नहीं है। विशेष चेष्टा से  तनाव बढ़ता है. चित्त उद्विग्न रहता है.
सहज स्वाभाविक कर्म जो उसे उसकी प्रकृति से मिले हैं को छोड़ दूसरे कर्मों में लगा मनुष्य कर्मों में बंधता है

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेनप्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ।10

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।
स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करो। गुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो और वह सभी देव तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो।
स्वधर्म पालन स्वभाव से रहते हुए करते हुए सभी दैव तुम्हारी पूजा स्वीकार कर तुम्हें इच्छित भोग देंगे अर्थात तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेंगे और जो भी भोग देव कृपा से प्राप्त हो उसे जो मनुष्य उन्हें अर्पित किये बिना भोगता है, वह चोर है। यह सम्पूर्ण सृष्टि जीव मय है, जीव स्वयं अधिदैव है। यह जहाँ है वहाँ चैतन्य है। कहीं यह प्रकट रूप में कहीं अप्रकट रूप में है। सभी कुछ ईश्वर का प्रसाद है, सभी में वही ईश, जीव रूप में व्याप्त है, वही दैव है, वही अधिदैव है, यह समझकर सभी भोग सभी भूतों को अर्पित करते हुए देव यजन करना तथा स्वभाव में स्थित रहना परम कल्याण कारक बताया है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ।13-4।

श्री भगवान अर्जुन को उपदेश देते हुए बताते हैं कि गुण कर्म के विभागानुसार चार वर्णों को मैंने (मेरी परा प्रकृति ने) उत्पन्न किया है। मनुष्य के द्वारा होने वाले कार्य चार प्रकार के होते हैं।
1 सत्त्व की प्रधानता, रज, तम गौण - ब्राह्मण
2 - रज की प्रधानता, सत्त्व मध्यम और तम अल्प - क्षत्रिय
3 - रजोगुण मध्यम, तम मध्यम, सत्त्व अल्प वैश्य
4 - तम की प्रधानता, रज मध्यम, सत्त्व अल्प शूद्र

जिनमें सत्त्व की प्रधानता होती है जिन्हें ब्राह्मण कहा गया है, वह विद्या और ज्ञान की ओर लालायित रहते हैं । ईश्वर भक्त, सरल होते हैं । रज की प्रधानता, सत्त्व मध्यम और तम अल्प क्षत्रियों की विशेषता है यह वीर सैनानी प्रजापालक, समाज की रक्षा करने वाले होते हैं। इन्हें क्षत्रिय कहा है। रजोगुण मध्यम, तम मध्यम, सत्त्व अल्प कृषि, पशुपालन, व्यापार करने वाले हैं। यह धन के प्रति लालायित रहते हैं, इन्हें वैश्य कहा है। स्वार्थ व लालच की प्रधानता होती है। तम की प्रधानता, रज मध्यम, सत्त्व अल्प,  न्यून बुद्धि के सेवा करने वाले मजदूर आदि होते हैं, इन्हें शूद्र कहा है। प्रत्येक युग और प्रत्येक समाज में कार्य भेद के अनुसार चार वर्ण अवश्य मिलते हैं। यह कार्य विभाजन पूर्णतया वैज्ञानिक है और हर समाज में यह काल भी था आज भी है और काल भी रहेगा.हाँ कार्य विभाजन के अनुसार उनके नाम अलग हो सकते है जैसे 1-unskilled or skilled labour, 2-businessman, farmer, industrialist 3-soilder,police 4-professor,scientist and  bureaucrat etc यह सत्त्व, रज, तम के प्रभाव के कारण होते हैं और सत्त्व, रज, तम का मिश्रण ही इनके अलग अलग परिस्थिति और परिवारों में जन्म लेने का कारण है। वास्तव में सब एक होते हुए भी कर्म फल के अनुसार स्वभाव वश भिन्न भिन्न वर्णों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए स्वभाव वश आचरण मन की प्रसन्नता देता है, मन शान्त होने लगता है, करुणा जाग्रत होती है और सरलता से धर्म का उदय होता है. स्वाभाविक रूप से निष्कामता सिद्ध होने लगती है.

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Friday, November 18, 2011

गीता/GITA - तीन प्रकार की श्रृद्धा और तीन प्रकार का देव पूजन- प्रो. जोशी बसन्त


    तीन प्रकार की श्रृद्धा और तीन प्रकार का देव पूजन  

संसार में साधरण जनों की अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार की श्रृद्धा होती है तदनुसार ही वह देव यजन आदि पूजन आचरण करते हैं.

भगवद्गीता में देव यजन को बताते हुए तीन प्रकार की श्रद्धा के अनुसार सात्विक, राजस और तामसी तीन प्रकार का पूजन करने वाले लोगों का पूजन आचरण बताया है.

सात्विक पूजें देव को, यक्ष रक्ष रज जान
प्रेत भूत को पूजते तामस जन वे पार्थ।। 4-17।।

सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष देव पूजन, यज्ञ, उपासना करते हैं। रजोगुणी पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा तमोगुणी भूत प्रेत को पूजते हैं, शमशान साधना, कपाल पूजा आदि करते हैं।

त्याग शास्त्र विधि पुरुष जो, तपते तप में घोर
दम्भ अहं से युक्त वे, काम राग बल युक्त।। 5-17।।

जो शास्त्र अनुकूल नियमों को नहीं मानते हुए केवल अपने मन से साधारण अथवा कठिन पूजन, आचरण करते हैं, अपने को कष्ट देते हैं, कई-कई दिन व्रत करते हैं, कोई गड्ढे के नीचे जाते हैं, पेड़ में लटकते हैं, बाल दाड़ी नोचते हैं, दूसरे को पीड़ा देते हैं, पशु बलि, नर बलि देते हैं। यह सभी मनुष्य दम्भ अहंकार से युक्त अनेक सांसारिक भोगों की इच्छा लिए हुए पाखण्ड से इस प्रकार की तुच्छ पूजा आदि कार्य करते हैं।

कृष करते वे भूत सब देह और चित आत्म
मूढ़ भाव अस ये पुरुष, निश्चय आसुर जान।। 6-17।।

इनका इस प्रकार के दम्भ पाखण्ड युक्त आचरण, जो स्वयं को और दूसरे को कष्ट देने वाला है मुझ जीवआत्मा को अपार पीड़ा देते हैं। इनके इस आचरण से भ्रान्ति और मूढ़ता अधिक और अधिक हो जाती है तथा आत्म तत्व पूर्णतया छिप जाता है। ये मूढ़ स्वभाव वाले असुर स्वभाव को धारण किये होते हैं। इनके लिए प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष कार्य ही सब कुछ होता है। इनका आत्मतत्व विस्मृत हो जाता है।


इन सब में सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष उत्तम हैं क्योंकि सत्व आचरण और देव पूजन से  निरन्तर चित्त शान्त करते हुए व आत्म ज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं.
आत्मतत्त्व का अभिलाषी सदा स्वरूप स्थिति की खोज करते हुए केवल आत्मा का ही चिन्तन करता है, आत्मा को ही नमस्कार करता है अपनी आत्मा में रमण करता है और आत्मतत्त्व को ही पाता है.


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Thursday, November 17, 2011

गीता - देव पूजन और सकामकर्म-प्रो. बसन्त


                           देव पूजन 

भगवदगीता आत्मतत्त्व शोध केंद्रित ग्रन्थ शास्त्र है और यह तत्त्व आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए है. आत्म ज्ञान के इच्छुक मनुष्य के लिए भोग और स्वर्ग हेतु देव पूजन और सकामकर्म का कोई स्थान नहीं है.
परन्तु भगवद्गीता में विधि द्वारा स्थापित जन सामान्य के लिए यह भी उपदेश है कि स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करोगुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो. वह सभी देव तुम्हें उन्नत करेंइस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो

कल्प आदि विधि ने रचा, यज्ञ सहित भू लोक
यज्ञ करें कल्याण को, पूर्ण कामना होय।। 10-3।।

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।

उन्नत होंगे देवगण, तुम उन्नत हो जाव
प्रति उन्नत करते हुए, परम श्रेय को पाव।। 11-3 ।।

स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करो। गुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो और वह सभी देव तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो।

यज्ञ सम्मुन्नत देवगण, देंगे इच्छित भोग
भोगे अर्पित देव बिन, निश्चय ही वह चोर।। 12-3।।

स्वधर्म पालन स्वभाव से रहते हुए करते हुए सभी दैव तुम्हारी पूजा स्वीकार कर तुम्हें इच्छित भोग देंगे अर्थात तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेंगे और जो भी भोग देव कृपा से प्राप्त हो उसे जो मनुष्य उन्हें अर्पित किये बिना भोगता है, वह चोर है। यह सम्पूर्ण सृष्टि जीव मय है, जीव स्वयं अधिदैव है। यह जहाँ है वहाँ चैतन्य है। कहीं यह प्रकट रूप में कहीं अप्रकट रूप में है। सभी कुछ ईश्वर का प्रसाद है, सभी में वही ईश, जीव रूप में व्याप्त है, वही दैव है, वही अधिदैव है, यह समझकर सभी भोग सभी भूतों को अर्पित करते हुए देव यजन करना तथा स्वभाव में स्थित रहना परम कल्याण कारक बताया है।

आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए सकाम पूजन का निषेध है, यहाँ तक कि स्वर्ग की इच्छा भी त्याज्य है परन्तु यह भी यथार्थ है कि अनेक जन्मों का योग भ्रष्ट पुरुष ही आत्मज्ञान और निष्काम कर्म की ओर अग्रसर होता है. साधारण मनुष्य अनेक इच्छा लिए जीता है, इसलिए फल की इच्छा के साथ  ईश्वर और देव पूजा करता है. इसलिए साधारण मनुष्य के लिए उपदेश है अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। अपनी उन्नति करो.

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Friday, September 30, 2011

भगवत गीता - वसंतेश्वरी – प्रेम योग - स्वरूप अनुभूति के बाद ही भक्ति उत्पन्न होती है. PROF.BASANT


ईश्वर के प्रति प्रेम, परम अनुराग भक्ति है और आजकल भक्ति का बड़ा बोलबाला है. आधुनिक साधु-सन्त, गुरु-चेले सभी चाहे  वह किसी भी  धर्म के मानने वाले हों , किसी न किसी रूप में भक्ति करो भक्ति करो का  प्रचार प्रसार कर  रहे  हैं. पर क्या कोई भक्ति करता है? इनके आचरण से लगता है यह  सब व्यवहारिक हैं, सब मौका परस्त भक्त और गुरु हैं. अभी ईश्वर की चर्चा कर रहे हैं तो अभी लट्ठ चलाने को तैयार हो जाते हैं. रुपयों के लिए गुरु और स्वजन का घात कर  डालते हैं. यह छिछोरे भक्त  हैं. आज प्रेम करते हैं कल एक दूसरे के अनिष्ट की सोचते हैं.
भक्ति अथवा प्रेम किया ही नहीं जा सकता. यह तो स्वयं हो जाता है. यह  लाइलाज रोग के समान है जिसे लग गया सो लग गया.
हमारा प्रेम संसार के प्रति होता है. पुत्र पुत्री का प्रेम, स्त्री पुरुष का प्रेम, माँ बाप का प्रेम, जमीन जायजाद का प्रेम, पद प्रतिष्ठा से प्रेम वह भी लेन देन पर टिका हुआ देखने को मिलता है. इस का कारण है हमारी इन्द्रयाँ बाहर की और खुलती हैं अतः प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित होती हैं. अप्रत्यक्ष ज्ञान के बारे में हम कुछ नहीं जानते, उस और हमारी इन्द्रियों की पहुँच नहीं है. फिर अप्रत्यक्ष से प्रेम केसे हो सकता है. दुनिया के ज्यादातर धर्म गुरु कोई संसार का भोग अपने अनुयायियों को  बताता अथवा देता है तो कोई स्वर्ग का भोग दिखाता है.
तो फिर प्रेम अथवा भक्ति कौन करता है.
श्री भगवान  भगवद्गीता में कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति चार प्रकार लोग करते है.

चतुर्विधा भजन्ते मां
जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी
ज्ञानी च भरतर्षभ ।7-16।

हे अर्जुन चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले, आर्त (दुःखी), अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी मुझ विश्वात्मा को भजते हैं, मुझ से प्रेम करते हैं।

आर्त-अत्याधिक दुःखी जो संसार से पूर्णतया निराश हो गया हो. जैसे द्रोपदी चीर हरण के समय. दुःख हरो नाथ ब्रजनाथ शरण में तेरी

अर्थार्थी- गरीबी और फटे हाल से जो अत्याधिक तंग हो गया हो और जीवन के लिए धन अंतिम विकल्प हो और इसके लिए उसे मात्र ईश्वर का सहारा हो अथवा जिसकी धन वैभव में प्रबल आसक्ति हो और उसके लिए तन मन धन से ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव प्रति क्षण रखता हो. हर समय धन वृद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हो और इच्छा  पूरी होने पर जिसकी श्रृद्धा गहरी होती जाती हो. कुछ योगभ्रस्ट धनी व्यक्तियों में ऐसे लोग होते हैं. ज्यादातर सांसारिक व्यक्तियों में  मात्र तात्कालिक ऐसी भक्ति मिलती है. इसी  तात्कालिक भक्ति का प्रचार प्रसार ही ज्यादातर धर्म गुरु कर रहे हैं.
जिज्ञासु - आत्म जिज्ञासा, ब्रह्म जिज्ञासा स्वरूप के खोज की और ले जाती है. यहाँ वह सत्य की खोज करता है प्रति बोध की मात्रा के अनुसार प्रीति बोध होता है. जितना स्पष्ट प्रति बोध उतना प्रेम उतनी भक्ति.
ज्ञानी बोध को प्राप्त व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है.

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थ
महं स च मम प्रियः ।7-17।

इन चार प्रकार के भक्तों में अनन्य प्रेम से जो मुझ परमात्मा की भक्ति करता है अर्थात सदा आत्मरत हुआ आत्म सुख अनुभव करता है ऐसा ज्ञानी भक्त अति उत्तम है। क्योंकि ज्ञानी मुझे तत्व से जानता है। इसलिए आत्म स्थित मुझे यथार्थ से जानने के कारण सदा मुझसे प्रेम करता है और वह सदा मुझे प्रिय है। वास्तव में हम दोनों एक ही हैं। ज्ञानी मेरा ही साक्षात स्वरूप है।
पूर्ण सत्य जानने के बाद अथवा स्वरूप अनुभूति के बाद ही वास्ताविक प्रेम और भक्ति उत्पन्न होती है.

बहूनां जन्मनामन्ते
ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति
स महात्मा सुदुर्लभः ।7-19।

अनेक जन्मों से अभ्यास, वैराग्य द्वारा यत्न करता हुआ, अनेक बार योग भ्रष्ट होकर जन्म लेकर अन्त के जन्म में परम विशुद्ध ज्ञान को प्राप्त पुरुष समझ जाता है कि सब कुछ आत्मा ही है, सभी कुछ भगवान ही हैं। इस प्रकार सृष्टि के कण कण में व्याप्त वह ज्ञानी स्वयं को स्वयं से देखता हुआ मुझे भजता है, ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
ब्रज गोपियों ,चेतन्य, मीरा, ईसा, बुद्ध का प्रेम इसका उदाहरण है. सूली पर चड़ने के बाद भी प्रेम कम नहीं होता. वह प्रत्येक स्थिति में सदा एकसा बना रहता है. यही वास्तविक प्रेम और भक्ति है.

आदि शंकर ने स्वरूप अनुसन्धान को भक्ति कहा है. यह सदा प्रति बोध के बाद जन्म लेती है  अर्थात ईश्वर जब अनुभव होने लगे और बोध होने पर पुष्ट हो जाती है. जिज्ञासा इसकी पहली सीड़ी  है और ज्ञान पूर्णता है. भगवद गीता के जिज्ञासु एवम ज्ञानी को उन्होंने  भक्त अथवा प्रेमी स्वीकारा है
यह ईश्वरीय प्रेम अति विलक्षण है. यह कृष्ण प्रेम है.
श्री भगवान गोपियों से कहते हैं, जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं वह स्वार्थी हैं, उनका सारा प्रयत्न लेन देन मात्र है. उनमें न सोहार्द है न धर्म. जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं उनका ही प्रेम निश्छल है, सोहार्द व धर्म पूर्ण है.
इस संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रेम करने वाले से भी प्रेम नहीं करते. जो अपने स्वरुप में स्तिथ रहते हैं जिनके लिए दूसरा कोई नहीं है. दूसरे वे हैं जिन्हें द्वैत भासित होता है पर उन्हें किसी से कोई प्रयोजन नहीं. वे आत्म तृप्त होते हैं. तीसरे जानते ही नहीं कि कौन उनसे प्रेम करता है और चौथे वो जो अपना हित करने वालेप्रेम करने वाले से भी द्रोह करते हैं.
परन्तु हे गोपियो मैं तो प्रेम करने वाले से भी प्रेम जैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए. मैं इसलिए ऐसा करता हूँ कि उनकी चित्त वृत्ति मुझ में अर्थात अत्मतत्व में लगी रहे. मैं सदा परोक्ष अपरोक्ष रूप से प्रेम करता हूँ पर उसे प्रकट नहीं करता. मेरा प्रेम अहैतुक है.    
 जैसा मैं हूँ वैसी तुम हो. मुझमें तुममें भेद नहीं है

Thursday, September 22, 2011

गीता सार-Vasanteshwari Bhagwadgita-Prof.Basant


                Vasanteshwari Bhagwadgita              
                         गीता सार
                   
                                   आत्मा

1-आत्मा ही परमात्मा है, वही परब्रह्म है।
2-आत्मा का देह भाव, आत्मा में अहं भाव जीवात्मा है।
3-जीवात्मा और आत्मा दोनों अव्यक्त हैं, अविनाशी और अनादि हैं।
4-आत्मतत्व सर्वत्र व्याप्त है।
5-सृष्टि आत्मा का ही विस्तार है ।
6- आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है।
7-आत्मा को कोई नही मार सकता, शस्त्र इसे काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती। आत्मा किसी को नहीं मारता है।
8-आत्मा अजर अमर है परन्तु इसके शरीर सदा मरते हैं।
9-आत्मा पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शान्त अवस्था है।
10-आत्मतत्व में स्थित होना ही परम स्थिति है, परम पद है।




                                    कर्म


1-कर्म तुम्हारे अधिकार में होने चाहिए।
2-कर्म, अकर्म को और विकर्म (निषिद्ध कर्म) को जानना चाहिए। कर्म की गति बड़ी जटिल है।
3-कर्म ईश्वर  के निमित्त  होने पर कर्म दोष नहीं होता है।
4-स्वभावगत कर्म होने पर अर्थात अपनी प्रकृति के अनुकूल आचरण करने पर भी कर्म दोष नहीं होता है।
5-कर्म आसक्त होकर करना ही आत्मतत्व का मार्ग है। अनासक्त  कर्म ही कर्म योग है, यही सन्यास अथवा ज्ञान योग है।
6-सकाम कर्म अच्छे हों या बुरे कर्म बन्धन में बंधते हैं।                     
                       
                अश्वत्थ
       
                                             1-  अव्यक्त
  2-उत्तम पुरुष- परमात्मा –ब्रह्
 ....................................................
                 ज्ञान शक्ति                                                      क्रिया शक्ति

                                                3-अक्षर ब्रह्म  
ब्रह्म की अज्ञानमाय उपाधि (प्रकृति बीज रूप में स्थित ) यहाँ से अश्वत्थ जन्म लेता है.
                                 .................................................................
4-1 क्षर पुरुष –जीव<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>> 2 प्रकृति (माया)
( जीव आता जाता, जन्म लेता और मरता दिखाई देता है)  
           ज्ञान शक्ति (क्रियाशील अवस्था ) ................... क्रिया शक्ति       
                      5- माया (अपरा प्रकृति)
             सत्..............रज  ...............  तम

     आकाश          वायु         अग्नि       जल        पृथ्वी
                     6-माया बद्ध जीव
                अहंकार
                     
                  बुद्धि
                   
                   मन
 शब्द.......  स्पर्श... ..       प्रभा      ........ रस   .........गन्ध
    
    आकाश          वायु         अग्नि       जल        पृथ्वी

                                   ज्ञानेन्द्रियां
                                                                               
                   वासना

                  कर्मेन्द्रियां
     
                    विषय
                     
                     चेष्टा
                      
                      कर्म

                संसार-बन्धन
                         1- बंधन से मोक्ष
1-ईश्वर- (उत्तम पुरुष +माया आधीन )- जीव जब क्षर, अक्षर स्थिति को पार कर जाता है , अश्वत्थ वृक्ष का विनाश हो जाता है  ईश्वर प्रगट होता है. अपनी दिव्यताओं के साथ चमकता है.
2-मोक्ष- जीव जब अक्षर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है.
                     
                                



                                       साधना 

अ-साधारण मनुष्य  के लिए।
ब-साधकों के लिए।

                   अ-साधारण मनुष्य के लिए

1-स्वधर्म पालन अर्थात अपने स्वभाव प्रकृति में स्थित रहना।
2-गुण धर्म के अनुसार अर्थात अपने जन्म व स्वभाव के अनुसार कर्म करना।
3-स्वभाव में स्थित रहने से सरलता आती है, उद्विग्नता समाप्त होती है। आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए सरलता आवश्यक  है। अस्वाभाविक प्रवृत्ति  से जीवन जटिल हो जाता है, अपनी प्रकृति विरुद्ध आचरण से असुर वृत्तियाँ  बढ़ती हैं।


                          ब - साधकों के लिए

1-आसन न बहुत ऊंचा न नीचा होना चाहिए। आसन के ऊपर कुश, मृगछाला अथवा ऊनी वस्त्र विछायें।
2-शरीर  गर्दन सिर एक सीध में रखकर स्थिर और सुख पूर्वक बैठना चाहिए।
3-नासिका के अग्र भाग को देखना।
4-ऊँ परमात्मा का नाम है, व्यवहार में सदा परमात्मा को स्मरण करना है।
5-प्राण ऊपर ले जाते हुए भौहों के मध्य में स्थापित करना।
6-साक्षी भाव से शरीर की क्रियाओं और संवेदनाओं को देखना।
7-हमेशा  जाग्रत भाव में स्थित रहना।
8-न अधिक खाना न कम खाना। आहार विहार संयमित होना चाहिए।
9-मन को बार बार विषयों से हटाकर आत्मतत्व परमात्मा में लगाना। इसी का निरन्तर अभ्यास करना।
10-भय रहित होना। मन की पवित्रता।
11-योग धैर्य से न उकताये चित्त  से करना चाहिए।


                     आत्मतत्व का अधिकारी पुरुष

1-आत्मतत्व का अधिकारी पुरुष कोई विरला ही होता है।
2-श्रद्धावान होना और मन सहित इन्द्रियों का वश में होना आवश्यक  है।
3-आत्म स्थित होने के लिए निरन्तर मनन, चिन्तन, अभ्यास, वैराग्य आवश्यक  है।
4-अनासक्त भाव से स्वाभाविक कर्म में रत होना है।
5-वीतरागी, क्रोध, भय से रहित सब भूतों में विश्वात्मा   हुआ और सब भूतों को अपनी आत्मा में महसूस करता है।
6-मन बुद्धि से सदा आत्मतत्व में आसक्त रहना आवश्यक  है।
7-परमात्मा निमित्त  कर्म करना अथवा सभी कर्मफलों को परमात्मा में अर्पित करना चाहिए।
8-वह श्रद्धा युक्त सदा आनन्द में निमग्न रहता है, शत्रु मित्र समान हो जाते हैं।

                            ज्ञान और कर्म योग

योग का अर्थ है जुड़ना अर्थात ईश्वर  से जुड़ना, ज्ञान द्वारा ईश्वर  से जुड़ना, कर्म द्वारा ईश्वर  से जुड़ना।
1-बुद्धि से आत्मतत्व को खोजना ज्ञान है। प्रत्येक कर्म अनासक्त भाव से करना कर्म योग है।
2-गुणों का कारण माया है, संसार गुणों का खेल है यह जान मन, बुद्धि, इन्द्रियों से सभी क्रियाओं एवं अहम् बुद्धि को त्यागना, कर्ता भाव न रखते हुए एक ही भाव से आत्म स्थित होना ज्ञान अथवा सन्यास योग है।
3-कर्म, कर्मफल में आसक्ति त्यागकर सब कर्म परमात्मा के निमित्त  करते हुए सब कर्मफलों को उसके अर्पण करना कर्म योग है।


                      समत्व योग-स्थितप्रज्ञ

1-जो विद्याविनय सम्पन्न, ब्राहमण, गौ, हाथी और चाण्डाल में समभाव रखते हैं।
2-प्रिय को पाकर हर्षित नहीं होते और अप्रिय को पाकर दुःखी नही होते।
3-सहृद मित्र बैरी उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धुगण, धर्मात्मा और पापी में समभाव रखते हैं।
4-सदा साक्षी भाव से स्थित रहते हुए शरीर  की क्रियाओं के प्रति उदासीन रहते हैं।
5-सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागी, आत्मरत आत्मा में संतुष्ट, समत्व योगी हैं।
6-किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थ सम्बन्ध नहीं होता।
7-जिनका मन दुःख में उद्विग्न नहीं होता और सुख से प्रीति नहीं करते, क्रोध और भय से जो मुक्त हैं।
8-कछुए के समान वह सदा अपनी इन्द्रियों को अन्दर की ओर किये रहते हैं। उनकी बुद्धि स्थिर होती है।


                           परमात्मा और प्रकृति

1-आत्मतत्व परमात्मा अव्यक्त है।
2-परमात्मा की दो प्रकृति हैं।
अ-परा प्रकृति               ब-अपरा प्रकृति
परा प्रकृति अव्यक्त है। अपरा प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त है।
3-परा-अपरा प्रकृति के संयोग से सभी भूतों का जन्म होता है।
4-परा प्रकृति को क्षेत्रज्ञ कहा है वही अधिदैव है।
5-शरीर  जो परा-अपरा प्रकृति का संयोग है उसे क्षेत्र कहा है।
6-अपरा प्रकृति जड़ प्रकृति है इसे अधिभूत कहा है। इसे 36 भागों में विभाजित किया है।
7-आत्मतत्व परमात्मा को अधियज्ञ कहा है।
8-स्वभाव को अध्यात्म कहा है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान, आनन्द, शान्ति है। जीव स्वभाव प्रकृति जन्य है


                                  सगुण-निर्गुण
       
                                      सगुण

1-सगुण उपासना का अर्थ है, सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना।
2-अपने स्वभाव में रहते हुए प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझना। 
3-उनका उठना बैठना, सोना, खाना पीना, व्यवसाय आदि सभी कार्य आत्मतत्व परमात्मा के लिए होते हैं।
4-साक्षी भाव से अपने शरीर मन बुद्धि अहंकार इन्द्रियों के कार्यो को देखना।
5-चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना, अपने आत्म रूप में परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना।
6-जगत को ब्रह्म मय देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,आकाश आदि सब जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना।

                                   निर्गुण

1-परमात्मा अव्यक्त है जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार द्वारा नहीं जाना जा सकता है।
2-परमात्मा महत् ब्रह्म (प्रकृति) से भी महत् है।
3-अष्टांग योग विधि, कुण्डलनी जागरण आदि से मन सहित इन्द्रियों को वश में करते हुए अव्यक्त का अनुभव करना।
4-वह अव्यक्त तुरीयातीत अवस्था है, वहां शून्य भी समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है।
5-वहाँ अनहद भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है।
6-अव्यक्त के साधकों के लिए श्री भगवान ने गीता शास्त्र में सरल साधन बताए हैं


                                     मृत्यु के बाद

गीता शास्त्र में श्री भगवान द्वारा मृत्यु के समय जीवात्मा किस प्रकार देह का त्याग करता है इसे सुस्पष्ट किया गया है। कर्मेन्द्रियाँ अपना कार्य बन्द कर देती हैं, उनका ज्ञान, जिसके द्वारा वह संचालित होती हैं, ज्ञानेन्द्रियों में स्थित हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियाँ अपना ज्ञान छोड़ देती हैं और वह ज्ञान विषय वासनाओं एंव प्रकृति सहित पंच भूतों में स्थित हो जाता है। पंच भूत भी ज्ञान छोड़ देते हैं, वह गन्ध में स्थित हो जाता है। गन्ध, रस में स्थित हो जाती है। रस, प्रभा में स्थित हो जाती है। प्रभा, स्पर्श में स्थित हो जाती है। स्पर्श, शब्द में स्थित हो जाता है। शब्द मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि अहंकार में, स्थित हो जाती है। अहंकार  अपरा (त्रिगुणात्मक) प्रकृति में स्थित हो जाता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति (अपरा) जीव प्रकृति (परा) में स्थित हो जाती है। जीव अव्यक्त में अपने कर्मों अपनी प्रकृति के साथ स्थित हो जाता है।
 पुनः अव्यक्त से ही जीव अपनी प्रकृति और कर्मों के साथ नवीन शरीर में बीज रूप से स्थित होकर शरीर धारण करता है तथा पूर्व जन्म की प्रकृति और कर्मानुसार कर्मफल भोगता है और यह क्रम चलता रहता है। यह सत्य है कि बीज का नाश नहीं होता है।

 जीव मृत्यु के बाद किसी भी लोक में स्वप्नवत रहता है। स्वप्न में यदि कोई राजा है या कोई विषय भोग करता है तो नींद खुलने तक वह उसका पूर्ण आनन्द लेता है। इसी प्रकार यदि कोई मुनष्य स्वप्न में मल मूत्र में पड़ा रहता है, आग में जलाया जाता है अथवा अन्य कष्ट भोगता है, तो उस यातना को भी पूरे रूप से स्वप्नवत अवस्था में भोगता है। मृत्यु के बाद जीवात्मा भी देह त्यागकर पहले घोर निद्रावस्था में होता है पुनः स्वप्नावस्था में आता है और वहाँ कुछ समय या लम्बे समय, जो सैकड़ों वर्षों का भी हो सकता है अपने कर्मानुसार शुभ और अशुभ लोकों को स्वप्नवत् भोगता है। पुनः कर्मानुसार पृथ्वी लोक में आता है और वह जीव अपनी प्रकृति के अनुसार प्रकृति का संयोग कर शरीर का निर्माण करता है।
परन्तु आत्म स्थित योगी पुरूष जब देह त्याग करते हैं तो उनके संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं, उनकी विषय वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। उनका ज्ञान पूर्ण और शुद्ध हो जाता है। वह ज्ञानेन्द्रियों से लेकर आत्मा तक परम शुद्ध अवस्था के कारण आत्म रूप में जब स्थित होता है तो परम शुद्ध होता है, उसमें विषय वासनायें, कर्म बन्धन नहीं होते। वह देह से अलग हो जाता है, वह घोर निद्रावस्था अथवा स्वप्नावस्था से परे हो जाता है। स्वर्ग-नरक या अन्य दिव्य लोक उसके लिए नहीं होते क्योंकि  वह प्रकृति  बन्धन से मुक्त हो जाता है। समाधि अवस्था में केवल पूर्ण एवं शुद्ध ज्ञान में, जिसमें कोई हलचल नहीं, तरंग नहीं, स्थित रहता है।


                                 अन्तिम बात

1-आत्मतत्व परमात्मा में अपना मन समस्त इन्द्रियों  सहित स्थापित करना।
2-निरन्तर स्वरूप अनुसंधान करना
3-सब कर्मों में यज्ञ स्वरूप परमात्मा है जानकर सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करना।
4-सृष्टि में आत्मतत्व से बड़कर कुछ भी नहीं है यह जानकर सब देवों के देव आत्म देव को  प्रणाम करना।
5-सदा आत्म चिन्तन करना आत्मा में रमण करना। मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरुयही ज्ञान है, यही ध्यान है, यही योग है, यही भक्ति है, यही सन्यास है, यही परम स्थिति व परम पद है।
                          
                    
                                         ऊँ  तत् सत्  
                   

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