Wednesday, September 21, 2011

GITA/ गीता -असुर समाज- यह संसार स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और काम ही इसका कारण है... ? - प्रो.बसन्त

                         

दम्भ अर्थात वास्तविकता छिपाकर मिथ्या रूप दिखाना, ईश्वर भक्ति का गर्व पूर्वक बाजार में प्रचार करना, दर्प, सबको नीचा दिखाने की आदत, जो प्रभुता को नहीं पचा पाता, अभिमान अर्थात अपने को, अपने ज्ञान को श्रेष्ठ मानना, क्रोध, कठोर वाणी से दूसरे को जलाना, अपमान करना, मूढ़ता जो शुभ और अशुभ में फर्क नहीं कर सकता, उनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है न वह शारारिक रूप से पवित्र होते हैं, उनका कोई आचरण श्रेष्ठ नहीं होता, वह दूसरे को अपमानित करने वाले, कष्ट देने वाले गलत मार्ग में डालने वाले होते हैं। सत्य से कोई प्रीति अर्थात अज्ञान का नष्ट करने के लिए उनका कोई कार्य नहीं होता, ज्ञान के लिए वह कभी लालायित नहीं रहते।
 आसुरी वृत्ति वाले जगत को आश्रय रहित, असत्य और बिना ईश्वर के मानते है। यह संसार स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और काम ही इसका कारण है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं है। वह यह मानकर चलते हैं जो आज है वही सब कुछ है। भोग ही उनका जीवन है। देह ही उनके लिए सर्वोपरि है। उनके अनुसार पाप-पुण्य,  स्वर्ग-नरक, ज्ञान, ईश्वर सब कल्पना है।
इस प्रकार मिथ्या दृष्टि को आधार मानकर चलने वाले जिनका ज्ञान नष्ट हो गया है, जिन की बुद्धि अल्प है, ऐसे आसुरी वृत्ति के लोग सबका अपकार करने वाले कठोर और निन्दनीय कर्म (विकर्म) में लगे रहते हैं। ऐसे मुनष्य से जड़ चेतन सभी कष्ट  पाते है। जगत के अहित के लिए ही इनका जन्म होता है।
ये दम्भ, मान, मद से युक्त मनुष्य किसी भी प्रकार से पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर संसार में विचरते हैं। यही नहीं उनमें अज्ञान के कारण अनेक भ्रान्ति पूर्ण बातें मस्तिष्क में भरी रहती है, जिसके कारण उनका आचरण भ्रष्ट रहता है। जगत के प्राणियों को पीडि़त करने वाले, उन्मत्त मनमाना आचरण करते हैं। उनका केवल एक ही विचार रहता है, कैसे ही भोग करें, कैसे सुख मिले। इसके लिए कुछ भी करना पड़े इस कारण मृत्यु होने तक अनेक चिन्ताओं को पाले रखते हैं कैसे भी जमीन जायदाद बढ़ानी है, ऐशो-आराम की वस्तुएं जुटानी हैं, भोग करना है इस व्यक्ति को नष्ट करना है आदि सदा विषय भोग में लगे, उसे ही सुख मानने वाले होते हैं। विभिन्न आशाओं के जाल में फंसे हुए आसुरी वृत्ति के मनुष्य सदा काम और क्रोध में रहते हैं। नित नई कामना करते हैं। हर कामना पूरी नहीं हो सकती और कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। विषय भोग ही इनका जीवन है जिसके लिए अन्याय पूर्वक धन आदि का संग्रह करने का प्रयत्न करते हैं।  अपने समाज में यह कहते फिरते हैं मैंने यह प्राप्त कर लिया है,अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लुंगा जैसे एक कारखाना लगा दिया है दो और लगाने हैं, इस साल इतना कमाना है अगले वर्ष दुगना करना है, मेरे पास इतना धन है फिर इतना हो जायेगा।
इस शत्रु को मैंने मार डाला है या नष्ट कर दिया कल दूसरे को भी मटियामेट कर दूंगा मैं मालिक हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही बलवान हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही भोगने वाला हूँ, सब मेरे आधीन हैं, मैं ही पृथ्वी का राजा हूँ, यह सब मेरा ही एश्वर्य है आदि। मैं बड़ा धनी हूँ, कुबेर से ज्यादा धन मेरे पास है, मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। जो हूँ मैं ही हूँ, मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा, आमोद प्रमोद करूंगा, ऐसी कभी खत्म नहीं होने वाली कामनाओं को लिए हुए रहते हैं। इनका हृदय सदा जलता रहता है। इनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित व भ्रमित रहती है। यह जमीन, धन, परिवार, झूठी प्रतिष्ठा के मोह से घिरे रहते हैं।
सदा विषय भोग में लगे अत्यन्त कामी आसुरी वृत्ति के यह लोग मूढ़ योनियों को प्राप्त होते हैं। यह सदा दूसरों से अपने को हर बात में श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और झूठेमान मद से युक्त होकर दिखावे का यज्ञ पूजन करते हैं और जिसमें शास्त्र की बतायी विधि का पालन नहीं किया जाता केवल अपनी वाहवाही के लिए पाखण्ड पूजन आदि करते हैं। यह आसुरी वृत्ति के पुरुष अहंकार, बल, घमण्ड, कामना, क्रोध आदि के आश्रित रहते हैं। सदा दूसरों की निन्दा करते हैं, इस प्रकार अपने शरीर में तथा दूसरे के शरीर में स्थित परमात्मा से अहंकार और मूढ़ भाव के कारण द्वेष करते हैं।
अपने आत्मतत्व से द्वेष करने वाले मूढ़ पापाचारी क्रूर कर्मी अधम मनुष्य इस संसार में बार-बार मूढ़ योनि अथवा मूढ़ मनुष्यों के रूप जन्म लेते हैं। वे मूढ़ (अज्ञानी) पुरुष  आत्म स्वरूप परमात्मा को नहीं जानते हैं, इस कारण उनकी ज्ञान की ओर वृत्ति पैदा नहीं होती और जन्म जन्मान्तर आसुरी (मूढ़) योनि को प्राप्त होते हैं। कर्मानुसार घोर क्रूर कर्म होने के कारण नीच से भी नीच मूढ़ योनि को प्राप्त होते हैं।


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