Friday, December 23, 2011

geeta-मस्तिष्क और बुद्धि के धरातल –Prof.Basant


          मस्तिष्क और बुद्धि के धरातल


हमारी पृथ्वी में जीव प्रजातियों के लाखों स्वरूप हैं और आदमी  विकास का अंतिम परिणाम है. इसे  ज्ञान या मस्तिष्क  के विकास  परिणाम कहा जा सकता है. हालांकि  प्रत्येक और हर मस्तिष्क  व्यक्तिगत  इकाई  है परन्तु बुद्धि के आधार पर इसे  तेरह चरणों या भागों  में विभाजित किया जा सकता है.
1.ब्रह्मांडीय बुद्धि
2.पूर्ण विकसित बुद्धि
3.विकसित बुद्धि
4.इष्टतम बुद्धि
5.सामान्य बुद्धि
6.मन्द बुद्धि
7.अविकसित बुद्धि
8..बन्दर बुद्धि
9.उच्च पशु बुद्धि
10.निम्न पशु बुद्धि
11.कीट बुद्धि
12.वनस्पतीय बुद्धि
13.जड़ अथवा पदार्थ  
वेदांत और भगवद्गीता हमें बताता है कि पूरी तरह से विकसित बुद्धि  एक  मुक्त  आत्मा है और ब्रह्मांडीय  बुद्धि भगवान है. आम तौर पर लोग  कमजोर और औसत मस्तिष्क वाले होते हैं. केवल  दस लाख में एक अनुकूलतम मस्तिष्क होता है, सौ लाख  में एक विकसित मस्तिष्क होता है और एक सौ मिलियन में  पूरी तरह से एक विकसित  मस्तिष्क होता है. यहाँ मैं पूर्ण विकसित और ब्रह्मांडीय बुद्धि के  दो सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ. पूरी तरह से विकसित बुद्धि  की स्थिति में मसीह ने कहा, 'मैं  और  मेरे पिता एक  हैं',  अहंब्रह्मास्मि  वही  अवधारणा  है  और  ब्रह्मांडीय   बुद्धि  की  स्थिति में  भगवान कृष्ण  कहते हैं. 'मैं सभी प्राणियों और  पदार्थ का  अतिप्राचीन बीज हूँ.'
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Wednesday, December 7, 2011

गीता का मनुष्यत्व का मार्ग है स्वाभाविक कर्म-Prof.Basant


मनुष्यत्व का मार्ग स्वाभाविक कर्म

भगवद्गीता का अनासक्त कर्म योग जन सामान्य के लिए नहीं है श्री भगवान ने जन सामान्य लिए स्वाभाविक कर्म विधान बताया है.
स्वाभाविक कर्म का अर्थ है जैसी आपकी प्रकृति है वैसे कर्म में लगे रहें. जिसका खेती करना स्वभाव है उसे खेती ही करनी चाहिए वह अच्छा सैनिक या डाक्टर नहीं हो सकता. इसी प्रकार जिसका स्वभाव सैनिक का हो वह अच्छा कृषक नहीं हो सकता. शहरों और कस्बों में आजकल देखा देखी का जमाना है. पड़ोसी का लड़का इंजीनियर तो मेरा क्यों नहीं. बच्चे की रूचि और स्वभाव का कोई मूल्य इन आधुनिक माँ बाप की नजरों में नहीं है. बचपन से नम्बरों की मारा मारी का जमाना है, बच्चे स्वाभाविकता खोते जा रहे हैं. बचपन से तनाव है. चित्त उद्विग्न रहता है. अतःस्वाभाविक कर्म का ज्ञान होना, बच्चे की प्रकृति को जानना तदनुसार उसको शिक्षित करना जरूरी है. इससे चित्त की उद्विग्नता, तनाव  समाप्त हो जाता है. मन प्रसन्न और करुणामय होने लगता है. प्रोग्रेसिव होना अच्छी बात है परन्तु अपनी रूचि और स्वभाव से सम्बंधित होनी चहिये.
जन सामान्य के लिए भगवद्गीता में श्री भगवान स्वाभाविक कर्म का उपदेश देते हैं.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।35-3।

दूसरे के धर्म से गुण रहित अपना धर्म (स्वभावगत कर्म ) अति उत्तम है। दूसरे का धर्म (स्वभावगत कर्म ) यद्यपि श्रेष्ठ हो या दूसरे के धर्म (स्वभाव) को भली प्रकार अपना भी लिया जाय तो भी उस पर चलना अपनी सरलता को खो देना है क्योंकि हठ पूर्वक ही दूसरे के स्वभाव का आचरण हो सकता है, अतः स्वाभाविकता नहीं रहती। अपने धर्म (स्वभाव) में मरना भी कल्याण कारक है दूसरे का स्वभाव भय देने वाला है अर्थात तुम्हारे अन्दर सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार तुम्हारा जो स्वाभाविक स्वभाव है उसका सरलता पूर्वक निर्वहन करो। तदनुसार कर्म करो.
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते है अर्थात सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार चेष्टा करते हैं। ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा। चेष्टाएं स्वाभाविक रुप से होनी हैं फिर उन्हें क्यों हठ पूर्वक बढ़ाया जाय। अतः अधिक परिश्रम करके दिन रात काम करते हुए भोग प्राप्त करने की विशेष चेष्टा (हठ) बुद्धिमानी नहीं है। विशेष चेष्टा से  तनाव बढ़ता है. चित्त उद्विग्न रहता है.
सहज स्वाभाविक कर्म जो उसे उसकी प्रकृति से मिले हैं को छोड़ दूसरे कर्मों में लगा मनुष्य कर्मों में बंधता है

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेनप्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ।10

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।
स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करो। गुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो और वह सभी देव तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो।
स्वधर्म पालन स्वभाव से रहते हुए करते हुए सभी दैव तुम्हारी पूजा स्वीकार कर तुम्हें इच्छित भोग देंगे अर्थात तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेंगे और जो भी भोग देव कृपा से प्राप्त हो उसे जो मनुष्य उन्हें अर्पित किये बिना भोगता है, वह चोर है। यह सम्पूर्ण सृष्टि जीव मय है, जीव स्वयं अधिदैव है। यह जहाँ है वहाँ चैतन्य है। कहीं यह प्रकट रूप में कहीं अप्रकट रूप में है। सभी कुछ ईश्वर का प्रसाद है, सभी में वही ईश, जीव रूप में व्याप्त है, वही दैव है, वही अधिदैव है, यह समझकर सभी भोग सभी भूतों को अर्पित करते हुए देव यजन करना तथा स्वभाव में स्थित रहना परम कल्याण कारक बताया है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ।13-4।

श्री भगवान अर्जुन को उपदेश देते हुए बताते हैं कि गुण कर्म के विभागानुसार चार वर्णों को मैंने (मेरी परा प्रकृति ने) उत्पन्न किया है। मनुष्य के द्वारा होने वाले कार्य चार प्रकार के होते हैं।
1 सत्त्व की प्रधानता, रज, तम गौण - ब्राह्मण
2 - रज की प्रधानता, सत्त्व मध्यम और तम अल्प - क्षत्रिय
3 - रजोगुण मध्यम, तम मध्यम, सत्त्व अल्प वैश्य
4 - तम की प्रधानता, रज मध्यम, सत्त्व अल्प शूद्र

जिनमें सत्त्व की प्रधानता होती है जिन्हें ब्राह्मण कहा गया है, वह विद्या और ज्ञान की ओर लालायित रहते हैं । ईश्वर भक्त, सरल होते हैं । रज की प्रधानता, सत्त्व मध्यम और तम अल्प क्षत्रियों की विशेषता है यह वीर सैनानी प्रजापालक, समाज की रक्षा करने वाले होते हैं। इन्हें क्षत्रिय कहा है। रजोगुण मध्यम, तम मध्यम, सत्त्व अल्प कृषि, पशुपालन, व्यापार करने वाले हैं। यह धन के प्रति लालायित रहते हैं, इन्हें वैश्य कहा है। स्वार्थ व लालच की प्रधानता होती है। तम की प्रधानता, रज मध्यम, सत्त्व अल्प,  न्यून बुद्धि के सेवा करने वाले मजदूर आदि होते हैं, इन्हें शूद्र कहा है। प्रत्येक युग और प्रत्येक समाज में कार्य भेद के अनुसार चार वर्ण अवश्य मिलते हैं। यह कार्य विभाजन पूर्णतया वैज्ञानिक है और हर समाज में यह काल भी था आज भी है और काल भी रहेगा.हाँ कार्य विभाजन के अनुसार उनके नाम अलग हो सकते है जैसे 1-unskilled or skilled labour, 2-businessman, farmer, industrialist 3-soilder,police 4-professor,scientist and  bureaucrat etc यह सत्त्व, रज, तम के प्रभाव के कारण होते हैं और सत्त्व, रज, तम का मिश्रण ही इनके अलग अलग परिस्थिति और परिवारों में जन्म लेने का कारण है। वास्तव में सब एक होते हुए भी कर्म फल के अनुसार स्वभाव वश भिन्न भिन्न वर्णों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए स्वभाव वश आचरण मन की प्रसन्नता देता है, मन शान्त होने लगता है, करुणा जाग्रत होती है और सरलता से धर्म का उदय होता है. स्वाभाविक रूप से निष्कामता सिद्ध होने लगती है.

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